अपना सम्मान हमें ख़ुद ही करना पड़ता है। क्योंकी जो दूसरों से
अपना सम्मान हमें ख़ुद ही करना पड़ता है। क्योंकी जो दूसरों से सम्मान पाने की उम्मीद करते हैं,उनके लिए कोई भी सम्मान पर्याप्त नहीं है। अंगराज कर्ण शिक्षित थे, सामर्थ्यवान योद्धा थे, फिर भी कुत्सित विचारों से वो बच नहीं सके, वो हमेशा ख़ुद को हीन ही मानते रहे। धर्मात्मा होने के बाद भी वो अधर्म का साथ देते रहे। एक स्त्री का अपमान किया, अपनें मित्र के रंग में रंग गए। परिणाम यह हुआ कि जिस मित्र की रक्षा करना चाहते थे अपनें प्राण देकर उसी मित्र की मृत्यु के कारण बन गए। ख़ुद को साबित करने के चक्कर में अहंकार से श्रृंगार किया, अंत में दरिद्र होकर ही मर गए। इसीलिए अगर आप सही हैं तो समय आपको स्वयं ही प्रमाणित करेगा आप बस अपने सत्कर्मों पर विचार करें। जीवित रहते हुए सम्मान की उम्मीद रखना ही व्यर्थ है।
_ सोनम पुनीत दुबे