“अपना वतन”
आसमानी रंग भर के,
ग़म-खुशी के गीत गाता
लाड़ला अपना वतन ।
पावनी धरती वतन की,
दूर तक जिसकी महक।
एक भारत का तराना,
गूँजता है दूर तक।
हूक देते पंक्षियों की,
बोलियाँ आकाश में,
चाँद के उस पार जाता,
लाड़ला अपना वतन।
झूमते कश्मीर के बागान,
केशर क्यारियां ।
वर्फ़ में डूबी हिमाचल की,
हठीली वादियां ।।
गाँव की खुशहाल,
मिट्टी से चली सौंधी हवा,
मदमती खुशबू लुटाता,
लाड़ला अपना वतन।।
वेशभूषाएँ अलग,
सबकी जुदा हैं बोलियां।
भदभदी नदियाँ,
पहाड़ों से उपजती बूटियां।।
एक लहराता तिरंगा,
एक ही सबका चमन।
दूध की नदियां बहाता
लाड़ला अपना वतन ।।
हर समय हुंकार भरता,
सैनिकों का हौसला ।
एक झंडे के तले,
अपने वतन का काफला ।।
सरजमीं इसकी
हजारों साल से जिंदादिली ।
जान की बाजी लड़ाता,
लाड़ला अपना वतन ।।
रचनाकाल
३०/०१/२०२१
संध्या समय
जगदीश शर्मा सहज
अशोकनगर |