अपना-अपना भाग्य ( पिता जनक का संताप अपनी पुत्री सीता हेतु )
हा पुत्री ! हा पुत्री !,
यह कैसी मेरी विवशता ?
देखकर अपने समक्ष तुझे ,
रो रहा हूँ ,अकर्मण्य हूँ,
चाहे कहो इसे मेरी दुर्बलता ।
मेरा रक्त श्वेत नहीं हुआ ,
काश ! अपना ह्रदय चीर कर ,
दिखला सकता ।
जिस निर्दोष ,पवित्र , मासूम नारी ,
पर दोष लग रहा है ,
वो मेरे जिगर का टुकड़ा है।
परंतु हाय दुर्भाग्य ! ,कहाँ लाकर उसने
तुझे और मुझे किया खड़ा है!
अपने क्रोध को पी कर ,
अपनी वेदना को दबाकर ,
सह रहा हूँ तेरे समान ही इस घोर अपमान और अन्याय को ,
मगर लाचार हूँ ।
जानता हूँ मै, कोई नहीं सुनने वाला यहाँ ।
कोई नहीं जानता ।
और यहाँ किसी को हमारी भावनाओं से वास्ता ही क्या ?
निर्दयी ,निष्ठुर , कठोर ,संवेदनहीन समाज से कर सकते
और कोई आशा भी क्या !!
मगर ईश्वर जानता है, मेरी आत्मा जानती है ,
की मैने तुझसे सबसे अधिक स्नेह किया ।
तुझे मैने नाज़ों से पाला ,
सब बहनों में तुझे अधिक दुलारा।
ईश्वर से जब भी कुछ मांगा ,
तेरे लिए सुख ही मांगा ।
हे मेरी कामनाओ ,आशाओं ,अभिलाषाओं और मेरे
स्वप्नों की मंजूषा !
तू तो मेरी अमूल्य निधि है रे !!
जिसे मै आज हार गया ।
अपने सामने तुझे धरती पर समाता देख,
यह जनक आज टूट गया।
सच ही किसी ने कहा ,
एक ही डाली के फूलों का होता है ,
अलग-अलग भाग्य ।
कोई सुख में खेले ,
कोई दुख उठाये ,
यह तो है अपना -अपना भाग्य ।
क्योंकि माता -पिता मात्र जन्म दे सकते हैं मेरी पुत्री !
नहीं दे सकते भाग्य ! नहीं दे सकते भाग्य !!