अपनापन
जीवन की अंजान यात्रा में वह नितांत अकेला रह गया था। अपने हमराही को खोये उसे दस वर्ष हो गये थे। उसे ऐसा प्रतीत होता था मानो हृदय की धड़कन मात्र बेटा, बहू तथा पाँच वर्षीय पोते के लिये गतिमान है। उसके कदम उसे जहाँ ले जाते थे, निर्जीव तन की भाँति वह वहाँ चला जाता था। पैंतीस वर्ष तक एक प्राइवेट फर्म में नौकरी के पश्चात् वह बेटे के पास चला आया था।
उसे आभास हुआ कि वह एक पार्क में था। कई समवय व्यक्तियों को देखकर उसके कदमों ने स्वयं ही उनलोगों तक उसे पहुँचा दिया था। उन सब को देखकर उसके होठों पर एक हल्की सी हँसी तैर गई थी।
“भाई साहब! शहर में नये लगते हो।” एक ने पूछा था।
‘भाई साहब’ संबोधन में अपनत्व की झलक थी, अतः हृदय के उद्गारों को उसने उड़ेलना प्रारंभ कर दिया था।
“जी हाँ, …….लगभग एक महीने हुये सेवानिवृति के पश्चात् बेटे, बहू के पास रहता हूँ। यहाँ से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर एक फ्लैट है, वहीं रहता हूँ। रामवचन नाम है मेरा।”
“रामवचन जी, हम सभी सेवा से निवृत हैं। सुबह शाम यहीं मिलते हैं। अपने अतीत के पलों को दुहराकर रोमांचित भी होते हैं, अच्छा लगता है।” एक ने कहा। किसी से अपना नाम सुनने के पश्चात् उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि अपनत्व और गहरा गया है।
“वाकई, कल से मैं भी आया करूँगा।” और सब्जी का थैला उठाकर वह तेज-तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा था। अंधेरा घिर आया था।
घर पहुँचते ही बहू की तेज आवाज ने उसका स्वागत किया था।
“क्या पापा जी, इतनी देर कर दी आपने……..।” हाथ से सब्जी का थैला झपटकर वह रसोई की ओर चली गयी थी।
“…….कब खाना बनेगा, कब खायेंगे और कब सोयेंगे……। सुबह जल्दी उठकर मुन्ने को तैयार करना, फिर ऑफिस जाना…….उफ़……।” बहू बड़बड़ा रही थी। तत्पश्चात् पुनः आवाज तेज हो गई थी। “……..सुनो जी, कल से ऑफिस से लौटते समय ही सब्जी ले आना…..।” बहू के भुनभुनाने का क्रम जारी था।
उसके कदम आज स्वयं ही पार्क की ओर उठ गये थे, अपनत्व की चाह में। उन सब से मिलकर आज उसने अंतरात्मा में भरी भावनाओं की कलशों को उड़ेल दिया था। आज स्वयं को वह काफी सक्रिय और हल्का अनुभव कर रहा था परंतु लौटते समय मि0माथुर के शब्द उसके कानों में चुभ रहे थे—-विचित्र जमाना आ गया है, रामवचन जी! न बहू, न बेटा, आज के जमाने में कोई देखने वाला नहीं। सब मोह-माया है और कुछ नहीं। मैंने तो बहुत झेलने के पश्चात् वृद्धाश्रम को अपना शरण स्थली बनाया। आपको जानकर अवश्य आश्चर्य होगा……..कि बैंक खाते से नामती के जगह पर अपने बॆटे का नाम हटाकर वृद्धाश्रम में सेवा करने वाले राजू का नाम लिखवा दिया। जो सेवा करेगा, वह पायेगा। मि0 माथुर के इस उपदेश पर उसने अपना विरोध प्रकट किया था–“नहीं,नहीं माथुर साहब, कुछ भी हो, अपना, अपना ही होता है……।”
रामवचन के इस वक्तव्य को मि0माथुर ने तुरत काट दिया था–“रामवचन जी, आपके अनुभव उतने कड़वे नहीं रहे, जितना मैंने सहा है। जिस बेटे को अपने पैरों पर खड़ा करने के लिये मैं और मेरी पत्नी ने रात दिन एक कर दिया। बॆटा बहू और पोती के साथ आज भी लंदन में कार्यरत है, उसी ने मेरी पत्नी के निधन पर ……..।”मि0 माथुर की आवाज भर्रा गई थी, गला रूँध गया था। दर्द के थपेड़े आँखों से स्पष्ट झलक रहे थे। आँखें नम हो गई थी। “………..आने से मना कर दिया था यह कह कर कि उसे छुट्टी नहीं मिल….. रही…..थी।”माथुर की सिसकियाँ फूट पड़ी थी। रामवचन ने उसे ढाढस बंधाया था।
घर पहुँचते ही बहू के तीखे व्यंग बाण ने उसका स्वागत किया था। वह अपने पति से कह रही थी–” सुनो जी, जब सारे काम हमें ही करना है तो पापा के रहने से क्या फायदा? ये न ही रहें तो बेहतर है, कम से कम आस तो न रहेगी।” बेटा विवेक मूकदर्शक बना सुन रहा था। बहू के कथन के एक-एक शब्द जहर से बुझे तीर की तरह रामवचन के तन में चुभते जा रहे थे। उसे अब प्रतीत हो रहा था कि वास्तव में माथुर के वक्तव्य में कितनी सत्यता है।
बिस्तर पर रात भर रामवचन करवटें बदलता रहा। नींद आँखों से कोसों दूर थी। पूरी रात माथुर के उपदेश एवं उसके विचारों में द्वंद जारी था। जब कभी उसके विचार जीत की ओर अग्रसर होते तो बहू के व्यंग बाण उसे निर्बल कर देते। अंततः जीत माथुर के उपदेश की हुई और उसने निर्णय ले लिया था, एक अंतिम निर्णय कि कल वह भी वृद्धाश्रम चला जायगा तथा बैंक में आवेदन कर नामिती के स्थान से बेटे का नाम हटा देगा एवं उसका नाम लिखवायगा, जो उसकी देखभाल करेगा। अंतिम निर्णय ने नींद का द्वार खोल दिया था और रामवचन शनैः शनैः नींद के आगोश में समा गया था।
सुबह जब आँख खुली तो बेटा, बहू और पोता तीनों अपने अपने गंतव्य को जा चुके थे। दिनचर्या से निवृत होकर बैंक के प्रबंधक के नाम उसने आवेदन पत्र लिखा। कुछ कपड़े और सामान लेकर वह बैंक की ओर चल पड़ा था। बैंक जाकर वहाँ लगे एक बेंच पर वह बैठ गया था। आहिस्ते से जेब से उसने आवेदन पत्र निकाला, कलम निकाली। ज्योंहि वह हस्ताक्षर करने जा रहा था, हृदय की धड़कनें तेज हो गई, उंगलियाँ काँपने लगी। माथे पर पसीना चुहचुहा आया। अंतरात्मा मानों कह रही हो—– रामवचन! क्या करने जा रहे हो? जरा सोचो, बच्चे गल्तियाँ कर सकते हैं। इतनी बड़ी सजा……….। तुम तो समझदार हो, क्या यही है तुम्हारी समझदारी।
“नहीं, नहीं वह ऐसा कदापि नहीं करेगा, चाहे कुछ भी हो जाय।” आवेदन पत्र फाड़कर उसने डस्ट बिन में डाल दिया था। माथे पर चमकते पसीने की बूँदों को पोंछता हुआ बैंक से वह बाहर आ गया था। अपने कदमों को वह काफी वजनी अनुभव कर रहा था। धीरे-धीरे कदमों से चलता हुआ वह वृद्धाश्रम की ओर चल पड़ा था। वृद्धाश्रम पहुँचने पर मि0माथुर ने उसका स्वागत किया था।
“आओ रामवचन, आओ। संभवतः मेरी बातें आपकी समझ में आ गई। आओ, बैठो।” माथुर ने एक बेंच की ओर इशारा किया था।
कुछ दिन उसने वृद्धाश्रम में गुजारे, परंतु रामवचन ने यह अनुभव किया कि वहाँ के हर क्रिया-कलाप में अर्थ का समावेश था, अपनत्व लेशमात्र नहीं। जितना खर्च करो, उतनी सुविधा। रह-रह कर बेटे और पोते की यादें हृदय को कचोटती थी, एक टीस सी उठ जाती थी, परंतु उन्हें वह झटक देता था। फिर भी जाने क्यों उसे ऐसा महसूस होता था मानो यहाँ के वातावरण से वह सामंजस्य स्थापित नहीं कर पायेगा। एक दिन पोते को देखने की इच्छा बलवती हो उठी।
धीरे-धीरे उसके कदमों ने पोते के विद्यालय तक उसे पहुँचा दिया था। विद्यालय गेट के सामने अंदर बच्चे खेल रहे थे। उसका पोता जिसे वह प्यार से ‘गोलू’ कहकर पुकारता था वह भी उन बच्चों में शामिल था। अचानक ज्योंहि उसकी दृष्टि रामवचन पर पड़ी, वह खेल छोड़कर गेट पर चला आया था। रामवचन कनखियों से देखता हुआ चला जा रहा था। गेट पर आकर गोलू ने पुकारा था– “दादाजी।”
वही चिर परिचित शब्द, वही चिर परिचित आवाज। कानों में मानो शहद घुल गया हो। एक निःस्वार्थ लगाव एवं निश्छल प्रेम एक क्षण को उसने अनुभव किया था। इस शब्द ने मानो रामवचन के पैरों में बेड़ी डाल दी थी। कई दिनों बाद उसने ये शब्द सुने थे। उसे लगा उसका अपना खून पुकार रहा है। पल भर को वह ठिठका था परंतु अनसुनी कर उसने अपने कदमों की गति बढ़ा दी थी। आँखें नम हो गई थी।
अचानक विद्यालय का गेट खोलकर दौड़ता हुआ गोलू रामवचन के पास आ गया था। पीछे-पीछे गेटकीपर भी दौड़ता हुआ चला आया था। गोलू ने रामवचन का हाथ पकड़ लिया था और हल्के से हिलाते हुये बोला- “दादाजी! आप कहाँ चले गये थे?”
स्वयं को कठोर साबित करने हेतु एक पल तक रामवचन शांत खड़ा था परंतु आँखें बह चली थी।
“बोलो न, दादाजी।” गोलू तनिक उग्र हो उठा था।
रामवचन के सब्र का बांध टूट गया था। उसने झटके से गोलू को गोद में उठा लिया था और पागलों की भाँति चूम रहा था। गोलू के प्रश्न के प्रत्युत्तर में उसने अनेक प्रयास किये थे परंतु गले से आवाज नहीं निकल पा रही थी, गला रूँध गया था। गोलू अवाक् रामवचन को देख रहा था। फिर बड़े भोलेपन से उसने रामवचन के आँसुओं को पोंछते हुये कहा था–“अच्छे बच्चे रोते नहीं।” उफ… ऐसा अपनापन, ऐसा निःस्वार्थ प्यार उसने अनुभव किया था, जो अमूल्य है। थोड़ी देर बाद गोलू को गोद से उसने उतार दिया था। स्वयं को संयत कर उसने खखार कर गले को साफ किया था फिर गोलू की नन्हीं उंगलियों को थाम कर उसने कहा था–“एक मित्र के यहाँ चला गया था……मेरे बच्चे।”
“आप कब आओगे?”गोलू ने झट से प्रश्न किया था।
“आप अपनी कक्षा में जाओ, मैं आज घर आऊँगा।” रामवचन ने कहा था।
“नहीं, आप नहीं आओगे, पहले प्रॉमिस बोलो।”गोलू ने फिर कहा था।
“निश्चित आऊँगा, मेरे बच्चे, प्रॉमिस है।”रामवचन ने उसे आश्वस्त किया था।
गोलू दादाजी को बाय-बाय कहकर गेटकीपर के संग अपनी कक्षा में चला गया था।
रामवचन उल्टे पैर आश्रम की ओर लौट पड़ा था। जाने क्या उसके मन में समाया था, कदमों की गति तेज हो गई थी। आश्रम पहुँचकर उसने अपने सामान समेटे और वह बाहर निकल रहा था तभी सामने माथुर साहब आ गये थे। माथुर साहब ने बड़े आश्चर्य से पूछा था–” क्या हुआ रामवचन जी, कहाँ जा रहे हो?”
रामवचन ने सपाट शब्दों में दो टूक जवाब दिया था—“वापस घर जा रहा हूँ।”
“क्यों?”माथुर साहब ने अवाक् होकर पूछा था।
“माथुर साहब, अपने तो अपने ही होते हैं, बाकी सब सपने होते हैं।”दृढ़ता से जवाब देकर वह आश्रम के गेट की ओर बढ़ गया था। माथुर साहब निरुत्तर उसे जाते हुये देख रहे थे।
—– भागीरथ प्रसाद