‘अपनापन’
‘अपनापन’
कितने अर्थहीन और खोखले थे तुम्हारे वो मर्मस्पर्शी शब्द!
ज्यों मात्र किसी रंगमंच के लिए
थे प्रयुक्त।
जो पिघला गए थे मेरे मन को,
छेदित कर गए थे नयनों के घन को।
मोह के धागों में बंधकर,
राह-दो राह भटककर।
जो मैंने पाया, कहीं कोई न था,
था कोई जो,वो केवल मेरा भ्रम था।
टूटी हुई भावनाओं को समेटकर,
घायल हृदय को लपेटकर।
लौट पड़े थे अकेलापन लिए,
पल-पल किसके लिए जिए?
टूट गई मेरी तुम में थी जो आस्तिकता,
जान गई थी अब तुम्हारी वास्तविकता।
आशाओं की फटी चादर
को फिर मैंने,
आँसुओं की डोर से तब सिला था।
कहाँ खो गया था तुम्हारा वो अपनापन?
जो कभी तुमने मुझेको दिया था।
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