अन्नदाता
सत्ता की मदहोशी त्याग, सोए हुए हुक्मरान जाग,
फुट जाएंगे सबके भाग क्यों बन बैठा अनजान है|
पत्थर काले के किले से, काले शीशे की गाड़ी से,
जरा सा बाहर झांक, क्यों अन्नदाता परेशान है|
ये है बड़ा भोला भाला, इसको गर्मी लगे न पाला,
देने को हर पेट को निवाला, बन जाता अन्न रखवाला,
पैरों में अपने घूमती मौत से होकर अनजान है|
यही है बस सच्चा दाता, सब को यह भर पेट खिलाता,
खुद का यह भर न पाता, फिर भी अनवरत अन्न उगाता,
भूखा है खुद अन्नदाता कैसा विधाता का विधान है|
कुर्सी पर बैठ सपना सजाया, हरितक्रांती अभियान चलाया,
पानी की जगह खून बहाया, पसीने से कर दिखलाया,
पर भला इसने क्या पाया, कौन सपना चढ़ा परवान है|
गरीब है कोई चाहे पूंजी वाले हैं, सब इसने ही पाले हैं,
इसने ना भेद किया साफ नियत चाहे कोई दिल के काले हैं,
हाथ हल चलाने वाले हैं फिर क्यों फांसी बना दे रहे जान है|
हो परेशान खेती से मुंह मोड़ लिया हल से नाता गर तोड़ लिया,
भूखा मरेगा आलम सारा दुखिया ने अगर अन्न उगाना छोड़ दिया,
दर दर ये खूब दौड़ लिया, झांक खुद तुम्हारा गिरेबां करता बयान है|
नाम हर कोई भुनाते इसका, सत्ता मिली वादे से खिसका,
चौथा स्तंभ भी गुंगा बहरा, देख रहा शदियों से पिसता,
खादी खाद्य उगाया इसका, हे ‘माचरा’ किसपे तुझे गुमान है|
सत्ता की मदहोशी त्याग, सोए हुए हुक्मरान जाग,
फुट जाएंगे सबके भाग क्यों बन बैठा अनजान है|
पत्थर काले के किले से, काले शीशे की गाड़ी से,
जरा सा बाहर झांक, क्यों अन्नदाता परेशान है|
मैन पाल मात्रा
एक किसान वंशज