अन्तिम चक्र
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कोशिकाओं,शिराओं और नसों से निचुड़ता प्राण का अंश ।
सम्पूर्ण का होना नि:शब्द वक्र और
शनै: शनै: चेतना व श्वास का होना भ्रंश ।
सचेत रहने की जद्दोजह्द करता हुआ मन ।
सुख,दु:ख; हास,रुदन को करता हुआ स्मरण ।
विचलित और चंचल अन्त:करण, अश्रुविगलित स्वरूप ।
अस्त होते हुए सूर्य से ज्यों घटता हुआ धूप ।
अत्यन्त हौले-हौले शमित होती हुई तन की गति ।
व्याकुलता भरे मन से छूटती हुई अर्ग्निज्योति ।
कल्पान्त में पृथ्वी द्वारा भोगी जानेवाली व्यथा –
आज झेलता हुआ देह के प्रत्येक कण की कथा ।
चक्षु से धीरे-धीरे निकलती हुई प्रकाश की आभा ।
नासिका के स्पन्दन से छूटती हुई श्वास की प्रभा ।
जैसे अंगन्यास हो रहा है
और उतर रहा है हर अँग से श्वास ।
कर्म का लेखा-जोखा मिटता हुआ और
कर्म पर व्यक्त मेरा संतोष व पस्चाताप ।
अँगुलियों व हाथों का होता जाना शिथिल से शिथिलतर ।
सूरज के प्रकाश का सिमटना,नभ का होते जाना बदतर ।
तम होता हुआ चतुर्दिक आच्छादित ।
घट जाने को आतुर जैसे कुछ अवांक्षित ।
तन से दूर जाता हुआ मन
जैसे नि:शब्द नभ में डूबता स्वर ।
मृत्यु जीवन का अन्तिम चक्र है जिसे जाना है बिखर ।
सारे दम्भ,अहँकार और अहम् से दूर जाता अस्तित्व ।
प्राण से निष्ठा का हटता हुआ आवरण का ‘वह’ तत्व ।
रूप,यश,बल का न आना काम; द्वेष,ईर्ष्या का पदाघात ।
छूटता हुआ सब कुछ का साथ ।
तन से प्राण के मोह और मन से प्राण का अन्तिम विसर्जन ।
मृत्यु, एक प्रश्न? जाग्रत-सुप्त का क्रम या स्रष्टा का पराक्रम ?
मृत्यु का अहसास एवम् इसे होते भोगना जीवन की नियति ।
मुकर्रर है एक दिन,कोई जानता नहीं पर,सत्य है एक तिथि ।
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