अन्तर्द्वन्द्व
आज वह फिर उदास बैठा था। उसके चारों ओर प्रकृति का मनमोहक सुन्दरतम रूप अपने सम्पूर्ण वैभव के साथ उपस्थित था। कभी नदी की कल-कल ध्वनि किसी मधुर संगीत का आभास कराती तो कभी पर्वत की चोटियों पर अचानक किसी पक्षी की आवाज़ का आकर्षण अपनी ओर खींचता। उसके सभी साथी प्रकृति की इस मनोरम छटा का आनन्द उठा रहे थे, परन्तु वह सबसे दूर अकेला, शान्त बैठा कुछ सोच रहा था। पास ही झरने से गिरते पानी का उमड़ता शोर मानो उसके हृदय में उमड़ते शोर के साथ एकाकार हो कर अपना भयंकरतम रूप प्रस्तुत कर रहा था, और वह इस उमड़ते हुए शोर के सैलाब में अपने अस्तित्व को भूल चुका था।
अचानक उसे अपने काँधे पर किसी के हाथ रखने का आभास हुआ, मुड़कर देखा तो उसका दोस्त रवि खड़ा मुस्कुरा रहा था, “क्या हुआ सलीम? आज तू फिर उदास दिखाई दे रहा है। अरे यार! कम से कम अपने दोस्त से तो दिल की बातें बता दिया कर।”
रवि की आत्मीयतापूर्ण बातें भी सलीम पर कोई प्रभाव न डाल सकीं।
“चलो, घर चलते हैं।” इतना कहकर वह चल दिया। उसने रवि के प्रश्न का उत्तर देना भी उचित नहीं समझा।
ऊँचे पहाड़ के एक तरफ नागिन की तरह बलखाती नदी अपने पूरे आवेग पर थी। नदी के दूसरी तरफ स्थित घाटियों में सलीम का छोटा सा गाँव था, जिसके एक किनारे पर उसका घर बना था। पत्थरों को जोड़कर दीवारें बना ली थीं और ऊपर से टीन की छत, बस यही था उसका घर। अभी उसने ड्योढ़ी के अन्दर पैर रखा ही था कि बूढ़े अब्बा के खाँसने और कराहने की मिली-जुली आवाज़ उसके कानों में पड़ी। लेकिन उसके ऊपर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, सिर्फ जबड़े थोड़ा और भिंच गए।
अभी एक वर्ष पहले की ही तो बात है, जब सलीम और रवि साथ-साथ स्नातक की उपाधि लेकर घर आये थे। दोनों के परिवार इस खुशी को सम्मिलित रूप से बाँट भी न पाए कि पूरा इलाका गोलियों की तड़तड़ाहट से काँप उठा। सलीम के घर के पास ही सुरक्षा बल के सैनिकों और आतंकवादियों के बीच मुठभेड़ हो गई थी। देखते ही देखते सैनिकों द्वारा चलायी गईं गोलियाँ आतंकवादियों के साथ ही उसकी माँ और बहन के सीने को चीर गईं और सलीम खड़ा देखता ही रह गया। उस दिन उसके घर से एक साथ दो जनाजे निकले थे। बूढ़े अब्बा को यह सदमा बर्दाश्त न हुआ और वे विक्षिप्त हो गए।
सलीम उस दिन बहुत रोया किन्तु दूसरे दिन उसकी आँखों की नमी सूख चुकी थी और उसका स्थान ले चुका था एक भयंकर आक्रोश।
आक्रोश…. उस व्यवस्था के प्रति, जहाँ उसके जैसे अनगिनत युवा बेरोजगारी का दंश झेलने के लिए अभिशप्त थे।
आक्रोश…. उस सरकार के प्रति, जिसके उच्च पदस्थ राजनेता और उनके परिवार तो पूर्णतया सुरक्षित और सम्पन्न थे किन्तु असहाय जनता असुरक्षा और गरीबी की मार से त्रस्त थी।
और आक्रोश उन सुरक्षा बलों के प्रति, जिन्होंने उसकी माँ और बहन की जान ली थी। वह उसी दिन से बदले की आग में जल रहा था।
इस एक वर्ष के अन्तराल में घाटी ने बहुत परिवर्तन देखा। आतंकवाद धीरे-धीरे ठण्डा पड़ने लगा था और लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था बढ़ने लगी थी। सरकार भी इस वर्ष घाटी में चुनाव की तैयारी में लगी थी। किन्तु, सलीम के मन का आक्रोश अभी वैसे ही धधक रहा था। वह अपना बदला लेने के लिए मौके की तलाश में था कि एक दिन सीमा पार से कुछ विदेशी एजेण्ट आये और सलीम की भावनाओं को खूब भड़काया। उसके मन में मज़हब, नाइंसाफी और बेरोजगारी के नाम पर देश के प्रति नफ़रत का बीज बोया गया, साथ ही माँ-बहन की मौत का बदला लेने के लिए उकसाया गया। जाते-जाते वे लोग सलीम को एक छोटा सा रिवाल्वर दे गए। देखने में वह जितना साधारण और खिलौने जैसा लगता था, वास्तव में वह उतना ही अधिक घातक था। वे सलीम से कह गए कि दस दिन के अन्दर उसे अपनी बहादुरी का प्रमाण देना है….. रवि को मौत के घाट उतार कर।
रवि..…उसके बचपन का दोस्त। जिसके साथ वह खेलता, बात-बात पर झगड़ता, लेकिन थोड़ी देर बाद ही उसे अपने पास न पा कर रोने लगता। तब उसके अब्बा उसे रवि के घर छोड़ आते। बड़े होने पर दोनों ने साथ-साथ एक ही कॉलेज में दाखिला लिया। एक दूसरे के मन की बात को जानने का जैसे उन्हें जन्मसिद्ध अधिकार मिला था। दीपावली व अन्य त्योहारों पर सलीम रवि के घर होता और ईद के दिन रवि सलीम के घर। मोहर्रम पर दोनों मिलकर जब ताज़िया उठाते तो कोई नहीं कह सकता था कि एक मुसलमान है और दूसरा हिन्दू। इसी प्रकार होली के दिन जब दोनों अबीर-गुलाल में सराबोर हो कर सड़क पर निकलते तो देखने वाले दंग रह जाते। दोनों की दोस्ती की मिसाल दी जाती थी। और अब उसी रवि को मौत के घाट उतार कर सलीम को अपनी बहादुरी का प्रमाण देना है।
इसी अन्तर्द्वन्द्व में एक-एक कर नौ दिन बीत गए।सलीम आज निश्चय कर चुका था कि अपनी माँ और बहन की मौत का बदला लेने के लिए वह रवि को मार कर अपनी बहादुरी का प्रमाण देगा। सुबह से ही वह कई बार रिवाल्वर को निकाल कर देख और चूम रहा था।
दोपहर में रवि जब उसके घर आया तो उस समय सलीम के हाथ में रिवाल्वर देख कर चौंक गया, ” यह क्या सलीम, मैं तुम्हारे हाथ में क्या देख रहा हूँ?”
“जो देख रहे हो वह सच है। मैं कल सीमा पार जा रहा हूँ, अपने प्रान्त को आज़ाद कराने के लिए।” सलीम की आवाज़ में दृढ़ता थी।
“तो क्या तुम अपने देश के साथ ग़द्दारी करोगे?” रवि ने पुनः प्रश्न किया।
“यह ग़द्दारी नहीं, अपने मज़हब के साथ वफ़ादारी है। और आख़िर इस देश ने दिया ही क्या है मुझे? मेरी माँ की जान ले ली, मेरी गुड़िया जैसी बहन को मुझसे छीन लिया।” सलीम की आँखें अंगारों सी लाल हो गईं थीं।
रवि ने उसे समझाने की कोशिश की लेकिन वह कुछ भी सुनने की जगह लगातार बोले जा रहा था, “तुम्हीं बताओ, क्या तुम्हारी योग्यता का कोई महत्त्व है? आज क्यों इस देश के शिक्षित बेरोजगार युवक आत्महत्या के लिए मजबूर हैं? एक तरफ नेताओं के घरों में करोड़ों-अरबों रुपये सड़ रहे हैं और दूसरी तरफ गरीब जनता के बच्चों को भूख-प्यास से तड़प कर मरना पड़ता है। आखिर इस अन्याय का कहीं अन्त भी है या हम लोग ऐसे ही देखते रहेंगे और ख़ुद भी इस व्यवस्था की खामियों के बीच पिस कर जान दे देंगे? अब तो सिर्फ़ एक ही रास्ता है… मरो या मारो।”
सलीम के इरादे को भाँप कर रवि एक क्षण के लिए सहम गया, लेकिन पुनः संयमित स्वर में बोल पड़ा, “देखो सलीम! सिर्फ़ इस व्यवस्था को कोसने से काम नहीं चलेगा, इसमें परिवर्तन लाना होगा। और इसके लिए हमें देश के दुश्मनों और ग़द्दारों से हाथ मिलाने की कोई आवश्यकता नहीं है। बल्कि आपस में मिलकर पहले इन देशद्रोहियों तथा दुश्मन के एजेण्टों का सफाया करना चाहिए और उसके बाद देश के अन्दर मौजूद ग़द्दारों तथा भ्रष्ट नेताओं से देश को मुक्त कराना चाहिए। परिवर्तन इस प्रकार होगा मेरे दोस्त।”
सलीम की आँखों का रंग बदलने लगा था। रवि उसकी आँखों में आँखें डालकर आगे बोला, “क्या तुम भूल गए नेताजी सुभाष चंद्र बोस, अशफ़ाक़ उल्ला खां और सरदार भगत सिंह को? क्या भूल गए परमवीर अब्दुल हमीद के शौर्य को? आतंकवादियों के हाथों में खेल कर अपने राष्ट्रभक्त शहीदों और क्रांतिकारियों के शौर्य को कलंकित मत करो दोस्त…मत करो।”
निरुत्तर सलीम एकटक आकाश की ओर शून्य में देखता रहा। रवि कब वहाँ से उठ कर चला गया, इस बात का उसे पता भी नहीं चला।
सलीम कभी अपने हाथ में रिवाल्वर को देखता और कभी रवि के साथ बिताये दिनों को याद करता। वह गहरे अन्तर्द्वन्द्व में पड़ा था। शाम हो गयी, धीरे-धीरे रात का धुँधलका बढ़ता गया। सलीम के मन में एक तरफ माँ और बहन की मौत का बदला लेने की इच्छा प्रबल हो रही थी तो दूसरी तरफ भारत माता के साथ ग़द्दारी का संत्रास उसे विचलित कर रहा था। सारी रात बीत गयी लेकिन सलीम उसी जगह बैठा रहा। उसकी आँखों में नींद की ख़ुमारी का नामोनिशान नहीं था।
सुबह होते ही रवि सलीम से मिलने आया और ठीक उसी समय सीमा पार से दुश्मन के एजेण्ट भी आ गए। उन्होंने सलीम को आज तक का ही वक़्त दिया था और वे उसकी बहादुरी का प्रमाण ले कर उसे अपने साथ ले जाने के लिए आये थे। उन्हें देख कर सलीम की आँखों के आगे उसकी माँ और बहन की मौत का दर्दनाक दृश्य घूम गया। उसका दोस्त रवि उसके ठीक सामने खड़ा था। सलीम एक झटके में घूमा और उसके हाथ में रिवाल्वर चमकने लगा, लेकिन निशाने पर रवि नहीं बल्कि दुश्मन के एजेण्ट थे। घाटी में चुनाव-प्रचार अपनी चरम सीमा पर था। जगह-जगह लोग चुनाव-चर्चाओं में व्यस्त थे।
~ समाप्त ~