अनोखा प्रेम
“सुनिए अनमोल जी!”
मेरे कानों में जैसे ही आवाज पड़ी, मैं थरथरा उठी …
वहीं जम गये मेरे पैर, जड़ सी हो गई मैं ।
आप ! आपकी आवाज ! इतने वर्षों बाद ?
मैं साठ वर्ष की हो चुकी ! आप भी तो सत्तर के हो चुके होंगे…अनगिनत विचार क्रमशः मन को घेरते चले गये…तब तक यकायक मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा …
“अनमोल जी हैं ना आप, प्लीज़ सुनिए”
मैं पलटी!
लगभग तीस वर्ष का एक युवा निश्छ्ल मुस्कान के साथ मेरे सामने खड़ा था…हूबहू आपकी तरह ..मैं चुप ! चकित भी।
“मैंने कहाँ –कहाँ नहीं ढूॅंढ़ा आपको” ..कहते हुए उसने झट से चरण स्पर्श किया मेरा…
मैं “न…न” कहती हुई थोड़ा पीछे हटी..
“आप कौन?” मैं अपने को सॅंभालने का प्रयास करती हुई पूछ बैठी…
“जी मैं….शिरीष ! लखनऊ से ही हूँ..पिछ्ले एक माह से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ, सुना था आप बाहर गई थीं..” कहते हुए उस युवा का चेहरा चमक उठा
मैं सशंकित हो पड़ी…
“मेरी प्रतीक्षा ? मगर क्यों ? मैं तुम्हे नहीं जानती…”कहकर मैं मुड़ने लगी…
“जी…. आप मुझे नहीं जानती …पर मेरा पूरा परिवार …मेरे पापा, सब आपको बहुत अच्छी तरह जानते हैं …मैं श्री उद्गम सिंह का बेटा हूँ …”उसने बहुत कोमलता से कहा
“क्या ?” कहते हुए मैंने अपनेपन की दृष्टि से उसको देखा …मुझे पता नहीं चला कि कब मेरी आँखों से आँसू बह पड़े…
“जी! आपको लिवाने आया हूँ….”कह कर उसने अधिकारपूर्वक मेरे दोनो हाथ पकड़ लिये…
मैं असमंजस में ..”बेटा! मैं समझ नहीं पा रही हूँ……तुम क्या कह रहे हो…” मैने थोड़ा बेचैन स्वर में उससे कहा…
“पापा….एक महीने से कोमा में हैं, बस कभी टूटे-फूटे शब्दों से अचेतन में एक ही वाक्य बोल रहे हैं…. “प्रेम शाश्वत है अनमोल, प्रेम खत्म नहीं हो सकता…” कहकर वो सहसा चुप हो गया।
मेरे मन और शरीर में बेचैनी होने लगी…
जाने कितने पुराने लम्हें …वो अंतिम मुलाकात, वो आपका अचानक मेरे सामने आना.. मेरी तरफ हाथ बढ़ाते हुए आगे बढ़ना…..वो मेरा दूर से ही रोक देना…और कहना कि
” आ गये ना…अपनी इच्छापूर्ति करने …बस यही था आपका प्रेम उद्गम जी…क्या फर्क रह गया आपमें और उस लोफर में जो भरी बस में बार-बार मुझसे टकरा रहा था ….” मैं बोले जा रही थी ….रोये जा रही थी…
दूसरी ही मुलाकात तो थी आपसे, हम दोनों उससे पहले एक पुस्तक मेला में मिले थे …मैं अपनी पुस्तक ‘समय-चक्र’ को ढूँढ़ रही थी, आप भी मेरी पुस्तक को ढूॅंढते-ढूॅंढते पहुँच गए थे…..अभी तक मुझे याद है, कैसे हाॅंफते हुए आप सामने खड़े थे…
“अनमोल रूको ना…” आपने एकदम सामने आकर कहा था…
“माफ कीजिए, मैं अनमोल नहीं, चेतना हूँ” मैंने थोड़ा अनियंत्रित होते हुए कहा था।
“हाॅं, मुझे पता है, पर मेरे मन ने तुमको ये नाम दे दिया है…मैं तुम्हारा बहुत सम्मान करता हूँ..अनमोल …”
आपने बिना किसी भूमिका के, एक पल में मुझसे कहा था और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये आगे कहा था कि …”दुबारा एक बार ज़रूर मिलना चाहूॅंगा, बस कुछ लम्हों के लिए ” कहते हुए आँखों -आँखों में बाय करके चले गये थे आप!
मैं हड़बड़ा सी गई थी..
तत्काल मैं पास में खड़े दुकानदार के पास पहुॅंची…”भईया! ये कौन थे? क्या आप पहचानते हैं इनको?”
करण प्रकाशन का बोर्ड लगा था उस की दुकान पर…वो तुरंत बोला
“ये ….अरे उद्गम भइया हैं, बहुत कमाल के शायर हैं दीदी, आप नहीं जानती इनको ?” कहकर उसने उनकी कई पुस्तकें मुझे पकड़ा दीं
..”जितने शर्मीले हैं , उतने ही वाकपटु भी …एक शेर में जिंदगी उतार देते हैं …”कहते हुए उसकी ऑंखों में चमक दिखने लगी।
“अच्छा-अच्छा” कहकर मैं पलट कर चल पड़ी…
झूठ नहीं बोलूॅंगी…. उद्गम जी की ये धृष्टता (मेरे हिसाब से ये धृष्टता ही थी) कहीं न कहीं मुझे अच्छी लगी थी..मैंने बहुत मज़बूती से वो पुस्तकें अपने हाथों में सहेज लीं और सोचने लगी कि क्या उन्हें मालूम है कि मैं इतने कुलीन, सुसंस्कृत परिवार से हूँ….कुलवधू हूँ इतने बड़े खानदानी परिवार की…भावातिरेक में मैं अपने सर पर ऑंचल कर बैठी और अपने सधे हुए कदमों से गेट के बाहर आ गयी…
‘अनमोल’…. मुझे अच्छा लगा था ये नाम ! पर उद्गम …ये कौन थे? मैं सोच ही रही थी कि ड्राइवर गाड़ी लेकर आ गया…एक लिफाफा हाथ में देते हुए बोला “उद्गम भइया दे गये हैं अम्मा जी”
“कौन उद्गम, किशोर?”
“अरे वो लखनऊ मध्य के विधायक जी का बेटा..आप नहीं जानती हैं क्या उनको ?”
कहकर उसने लिफाफा मुझे पकड़ा दिया…
“उद्गम! क्या उम्र है उनकी किशोर” मैंने थोड़ा आहिस्ता से पूछा
“अरे होंगे कोई 60 वर्ष के आसपास”
“क्या ?”
अब चौंकने की बारी थी मेरी …
“हाॅं! मर्चेंट नेवी में थे वो, फिर कनाडा शिफ्ट हो गये थे बिजनेस के सिलसिले में , हमारे मोहल्ले का बच्चा-बच्चा उनका प्रशंसक है।अम्मा जी..बहुत दयालु, बहुत सीधे तथा शर्मीले इंसान हैं वो …”
कहते हुए किशोर के चेहरे पर चमक भरी मुस्कान आ गयी …
“ओह !” कह कर मैं चुप हो गयी..
मैं गाड़ी में पीछे की तरफ सिर टिकाकर, आँख बंद कर बैठी रही….अजीब से मानसिक चक्रव्यूह में अपने को बॅंधा पा रही थी मैं…इतनी बड़ी बेटियों की माँ, दो–दो नातिनों की नानी…और इस उम्र में.. मैंने तुरंत लिफाफा खोला!
“प्रिय अनमोल!
मैं तुम्हे पिछ्ले तीस वर्षों से पढ़ रहा हूँ ..समझ रहा हूँ.. प्रेम कर रहा हूँ… मैं तुम्हे कभी न बताता ये सब कुछ, यदि मुझे ये न पता चलता कि तुम्हें कैंसर हो गया है …हाॅं, मुझे सब पता चला था कि अपने पति की मृत्यु के बाद से, तुमने अपनी बेटियों के पालन पोषण के साथ ही …अपने खानदान की सम्पत्ति , सम्मान का, बहुत ख्याल रखा….और पिछले महीने तुम्हें ब्लड कैंसर हो गया है..
प्रिय अनमोल, मुझे गलत न समझना, मैंने तुम्हारी लिखी हर किताब पढ़ी है, ‘वजूद’ से लेकर अक्षरधाम’ तक की सारी पच्चीस की पच्चीस पुस्तकें …कमाल की लेखिका हो तुम …भाव पिरोकर रख देती हो शब्दों में….मैं अनवरत तुम्हे प्यार करता रहा … तुम्हें कभी किसी भी चीज की आवश्यकता पड़े तो नि: संकोच मुझसे कहना और बस यही बताने के लिये आज मैं तुमसे मिला…मुझे गलत मत समझना, मुझे तुमसे कुछ नहीं चाहिए..बस एक बार मुझसे मिल लेना कभी, सिर्फ एक बार! कुछ लम्हों के लिए ।
हमेशा से तुम्हारा…
‘उद्गम’
पचास वर्ष की उम्र में भी मेरे हृदय की धड़कनें तेज-तेज चलने लगी थीं…चेहरा लाल हो आया था ..अस्त-व्यस्त सी होने लगी थीं भावनाएं, काॅंपते हाथों से वो पत्र अपने पर्स में रख लिया था….कौन है ये उद्गम! मेरे बारे में सब पता है ? कैसे ? मेरी सारी पुस्तकें पढ़ते रहे.. मुझसे प्यार करते रहे…सोचते-सोचते मै किशोरवय की लजीली सी प्रेमिका की तरह अपना मुॅंह छुपा बैठी
…”उद्गम जी! आप भी न.. कहाँ से आ गये मेरे जीवन …” मैं सोचते-सोचते घर पहुँच गई…और चाय का कप हाथ में लेकर उद्गम जी की पुस्तकें देखने लगी.. कमाल, इतने पुरस्कार से सम्मानित किये गये हैं ये, लेखनी पढ़कर तो मैं मंत्रमुग्ध हो गई..सच कहूॅं तो मुझे बहुत अच्छा लगा इतने वर्षों बाद, इतना उत्कृष्ट लेखन पढ़कर..और एक हफ्ता भी नहीं बीता था कि दरबान ने आकर बताया
“अम्मा जी, उद्गम भइया आये हैं, आपसे मिलने …”
मैं चौक पड़ी थी! सामने आप खड़े थे.. गुलाबी सा चेहरा …हँसते होंठ..
“आप! आइये-आइये …” मैंने लगभग हकलाते हुए आपको अपने ही कमरे में बैठाने का उपक्रम किया…
“कैसी हो तुम अनमोल ?”
उम्र के इस पड़ाव पर भी मैं शर्म से लाल पड़ गयी… कुछ बोल न पाई…
“ये सब …” कहते हुए मैंने नजरें झुका ली …
“मैं ऐसी औरत नहीं हूँ …आप गलत समझ रहे हैं मुझे …” कहकर मैंने ऑंचल को अपने सर पर रख लिया…
आपने थोड़ा पास आकर कहा …
“हां..तुम बिल्कुल वैसी औरत नहीं हो, बल्कि तुम तो प्यार हो …पूरा प्यार, जो सिर्फ जीने की प्रेरणा देता है प्रिय अनमोल!”
कहते हुए आपने अचानक मेरी तरफ बढ़ने का उपक्रम किया..आपकी सहज, निश्छल, पवित्र ऑंखों के वो भाव…आपका वो देखना …पर मैं सहसा घबरा गयी थी …और..जाने क्या – क्या कहकर आपको घर से जाने को कह दिया था…
“आगे मत बढ़ियेगा आप” कहते हुए मैं घबरा गई थी और आप यह कह कर निकल गये थे कि
“मेरा प्रेम शाश्वत सत्य है अनमोल, प्रेम खत्म नहीं हो सकता ! तुमने मुझे ग़लत समझा है” सोचते-सोचते अजीब सी मन:स्थिति से
मैं अतीत से बाहर निकली…इस घटना को हुए करीब दस वर्ष बीत चुके थे….उद्गम जी ने मुझसे कभी दुबारा मिलने का प्रयास नहीं किया…ना पत्र..ना फोन! मुझे ये अभी तक याद है कि जब वो मेरे घर से जा रहे थे तो उनका चेहरा आँसुओं से भीगा था…
मैं पूरी तरह अतीत से बाहर निकल आई।
“क्या हुआ है उद्गम जी को ?”
“जी ब्रैन अटैक….एक माह पहले वो पुराने घर से शिफ्ट हुए…एक लिफाफा उनके हाथ में था और उनको ब्रेन अटैक पड़ा। मैंने उसी रात वो लिफाफा खोला था और …मुझे आपके बारे में पता चला था, तभी से मैं आपको ढूॅंढ रहा था….आप मेरे पापा को बचा सकती हैं…अनमोल जी…” कहकर वो रो पड़ा!
“क्या था उस लिफाफे में ?”मैंने अधीरता से पूछा
उसने जेब से एक कागज़ निकाल कर मेरे हाथों पर रख दिया..
“मैं, मेरा प्रेम शाश्वत सत्य है प्रिय अनमोल ! प्रेम खत्म नहीं हो सकता…मैं तो सिर्फ तुम्हारे चरण स्पर्श करने को आगे बढ़ा था, पर तुमको बता न सका, तुमको गलत भाव से छूने का….शारीरिक सम्बंध बनाने का या….बदनाम करने का, मेरा कोई विचार न था। तुम मेरे लिए बहुत महान थीं, मेरी प्रेरणा थीं। मैंने अपना सात्विक प्रेम सदैव अपने तक रखने की सोची थी! तुम्हारी लेखनी पढ़कर मैं कई बार धर्म संकट से बाहर निकल आता था। मैं अक्सर सोचता रह जाता था कि जब भी किसी अंर्तद्वंद में उलझता , तुम्हारे पात्र मेरे पथ-प्रदर्शक बन जाते थे। मैं इस अबूझ रिश्ते को पाकर चकित था अनमोल! जैसे ईश्वर कभी मिलते नहीं हैं, पर हमारा हृदय उनके प्रति अगाध स्नेह से भरा रहता है, वैसे ही मेरे लिए तुम थीं ! यदि मुझे यह पता न चलता कि तुमको कैंसर हो गया है, तो मैं अब भी तुमसे न मिलता। मुझे पता है मेरी बातें आज के समय में समझ आने वाली नहीं हैं! मैं तुम्हें कुछ बता न सका….और तुमने मुझे क्या–क्या समझ लिया? मुझे अपने ऊपर ग्लानि हो रही…ये मैंने क्या किया! एक बार तुम रुकती तो…मेरी आँखों में देखती तो…क्या मैं तुम्हें …इतना गिरा हुआ इंसान लगा था अनमोल! अब मैं तुमसे जीवन में कभी नहीं मिलूॅंगा! तुम्हारी पूजा की है मैंने …तुम्हे पाना नहीं चाहा….छूना तो दूर, कभी वो ख़्याल भी नहीं आया मेरे मन में…मैं तो तुमसे माफी माँगने के योग्य भी न रहा…”
पढ़ते-पढ़ते मैं हिचकियाॅं लेकर रो पड़ी……शिरीष ने मुझे स्नेह से गले से लगा लिया …इतना मैं कभी नहीं रोई…
“मुझे तुरंत हास्पिटल ले चलो…” कहकर मैं गाड़ी में बैठ गई….
अपोलो पहुँचते ही धड़कने तेज हो गई….जब आपके कमरे में पहुँची…धक से रह गई! हँसता-मुस्कराता चेहरा….आँख मूॅंदे….एक बेड पर एक महीने से …उफ!
मैंने बहुत धीरे से आपके पैरों को स्पर्श किया…
“उद्गम जी!”
मैं बेतहाशा रो पड़ी, एक छोटी सी गलतफहमी हुई और …
“उद्गम जी … उठिए..न! एक बार मुझसे कहिए ना कि “प्रेम मर नहीं सकता…मैं …आपके पास आ गयी हूँ…” सोचते-सोचते मैं हिचकियाँ लेकर रोने लगी …
आपके हाथों को बहुत सम्मान से मैंने अपने हाथों पर रख लिया…
“उद्गम जी, उठिए…मैं आई हूँ.. उद्गम जी … सुनिए ना…” कहकर मैं अपना मुॅंह छुपाकर कर रो पड़ी…कि सहसा ….आपके शरीर में मुझे कंपन महसूस हुआ…
‘अनमोल….’ आपने मेरा नाम लिया..
“उद्गम जी …आँखे खोलिए, मैं आई हूँ….आप गलत नहीं थे उद्गम जी…” कहते-कहते मैं वहीं बैठ गयी…
शिरीष ने मुझे उठाया…”शायद अब पापा ठीक हो जायें…”
कहकर रोने लगा…
”तुम्हारी मम्मी कहाॅं है बेटा?” सहसा मैंने उससे पूछा..”माॅं, नानी, दादी, बाबा सभी का चौदह वर्ष पूर्व एक एक्सीडेंट में निधन हो गया था अनमोल जी, बस मैं और पापा ही बचे हैं अब” कहकर वो जैसे शून्य में देखने लगा था!
“ओह! बहुत दुःखद” कहकर मैं मौन हो गई।
पूरे एक हफ्ते….सब कुछ छोड़कर मैं बावरी सी वहीं रही…उद्गम जी के पास! और आज जब मैं पहुँची तो हँसते हुए..उद्गम जी बैठे थे, मानो उन्हें कुछ हुआ ही नहीं था …
“अनमोल” उन्होंने मुझे देखते ही कहा।
“हाँ उद्गम जी! मैं अनमोल! आपको बहुत ग़लत समझा था मैंने, प्लीज़ मुझे माफ़ कर दीजिए” कहकर मैं सर झुका कर रो पड़ी..
अचानक उन्होंने अपने काॅंपते हाथों को मेरे सर पर रखा …
“हमेशा खुश रहो, बस यही मैं चाहता हूॅं,” कहकर उन्होंने अपना हाथ हटाया और मुॅंह दूसरी ओर कर लिया..
मैं चुपचाप अस्पताल के कमरे से बाहर निकल आई और फूट – फूट कर रो पड़ी …।
समाप्त
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ