अनुरक्ति की बूँदें
मैं
प्रेम को
रोपने वाला
किसान हूँ
स्त्री
धरती है
मैं उसके मन पर
प्रेम का
हल चलाता हूं
और
उगाता हूँ
मोहब्बत की
फसल
अपने
प्रीत के रस से
रीतता हूँ
मिट्टी को
खर–पतवारों को
नष्ट करता हूँ
स्नेह के
हर्बिसाइड्स से
फिर बोता हूँ
इश्क़ के बीज
उन्हें प्रदान
करता हूँ
अनुराग का
उर्वरक
फिर सींच
देता हूँ
नेह के जल से
तब
जाकर कहीं
मेरे प्रणय की
हरी–भरी फसल
आकाँक्षा की
पूर्ण अनुभूति से
लहलहाती है
कुछ
समय बाद
इस फसल के
पौधों में
लटकती हैं
अनुरक्ति की
बालियाँ
और इन पकी हुई
स्वर्णिम
बालियों से
फूट पड़ते हैं
लाड़–प्यार के दाने
इन
चमकीले लाड़ले
दानों को देखकर
धरती अपने
स्वभावनुसार
वात्सल्य भाव से
ओत–प्रोत होकर
उमड़ पड़ती है
चूँकि
हर पुरुष में
आधी नारी छिपी होती है
इसलिए
मेरे अंदर का भी
अर्धनारीश्वर
जाग्रत हो जाता है
और जाग उठता है
मेरे अंदर का
ममत्व भाव
ये
स्वर्णिम दाने
मेरे मन को
उत्साहित कर देते हैं
और मेरे अंदर
भर देते हैं
धरती के प्रति
अत्यधिक निकटता का भाव
जिसमें छिपी होती है
एक अलौकिक
आत्मीयता
सहसा
तब मैं
उन दानों को
अपने हाथों से
उठाकर
मुठ्ठी में भरकर
उन्हें भींचकर
चूम लेता हूँ
उसी
पल मेरे अंदर
न जाने
कहाँ से
उत्पन्न होता है
अबोध, मासूम, निर्मल
आसक्ति भाव
मैं
इस आसक्ति
भाव से
अभिभूत होकर
एक चुम्बन
ले बैठता हूं
धरती के
माथे का
उसी
क्षण धरती के
माथे पर
उभर आती हैं
उत्तेजनायुक्त
अविस्मरणीय
रेखाएं
और उन रेखाओं पर
सज जाते हैं
हर्ष के
कुछ स्वेद–कण
ठीक
उसी पल
धरती की
आँखों की
कोरों से
छल–छलाकर
टपक पड़ती हैं
संतुष्टि एवं
खुशी से मिश्रित
अनुरक्ति की
कुछ बूँदें….!
–कुंवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍🏻
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