अनित्य का विश्व
——————–1—————————–
अनित्य का विश्व, आत्मा से आच्छादित?
चेतना शुन्य देह से चैतन्य देह आभासित?
उस चेतना की आकांक्षाएं,और अदम्य इच्छाएँ?
कृष्ण का अर्जुन से छल करती हुई भावनाएँ-
“सब मृत है या मरेगा तेरे वाण से नहीं तो मेरी माया से.
योद्धा होने का गर्व और गौरव प्राप्त करने हेतु
विध्वंस करो हे! अर्जुन, मेरे प्रिय मित्र.”
“पृथापुत्र,जीवन में युद्ध ही सर्वोपरि है
श्रम सम्पादन से कितना गढ़ लोगे धान्य-धन.
अर्थ होगा तो “अर्थ” होगा तुम्हारा
युद्ध का विजय देगा तुम्हें काम की क्रिया,मोक्ष का स्वर्ग,
माया का सुख,मोह की प्रसन्नता, अहंकार का अहम् ..
सत्य यही है हे पार्थ,
सत्ता इसी की है और यही है जीवन का तार्किक तत्व.”
“हे अर्जुन, दृश्य जगत है नाशरहित
क्योंकि सर्व व्यापक आत्मा है स्थित.
अजन्मे आत्मतत्व से आलोकित है सर्वस्व
अत: नित्य है,अत: है अमर,अत: तू युद्ध कर
क्योंकि, तेरे मारने से नहीं मरेगा हे गांडीवधारी अर्जुन.
संचित ऐश्वर्य और विजित राष्ट्र अनायास उपलब्ध होगा
इसलिए युद्ध कर.”
“प्रकाश या प्रकाश की अनुभूति जीवन में आत्मा का पर्याय है.
यह प्रकाश न नष्ट होता है न ही सृजित
अत: इसका न कोई हन्ता है न जनक.
तदनुसार कालचक्र से परे निरंतर व सनातन है यह आत्मा.
यह रहस्यमय ज्ञान है
अत: तू ऐसा जान और युद्ध कर.”
“आत्मा गंध हीन,रंग हीन,स्पर्श हीन,निःस्वर, स्वाद हीन,
निराकार,और अतप्त तथा अव्यक्त है हे अर्जुन,
किन्तु,सत्ता तो इसकी अवश्य है चाहे, पारदर्शी हो.
मानो कि तुम इसे जन्म वाला व मृत्यु वाला मानते हो तब भी
मृत्यु के पश्चात् यह ग्रहण करेगा प्रादुर्भाव.
जिसका पुनर्जन्म होना ही है व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु
उसे नष्ट कर देने से किसी पुन्य का क्षरण तो होता नहीं.
अत: तीव्रतम गति और बल व संकल्प के साथ
अपने धर्म का पालन करने हेतु युद्ध कर.”
“क्या तुम स्वयं की मृत्यु से भयाक्रांत हो या परिजनों के?
मृत्यु शाश्वत सत्य है हे पार्थ,
आत्मा के सन्दर्भ में यह गूढ़ तथ्य तेरा अज्ञान दूर करे!
अब मैं कर्म के तथ्यों को स्पष्ट करने हेतु उद्धत हूँ
तू भी अपने सम्पूर्ण चेतना सहित उद्धत हो जा अर्जुन.”
“परमात्मा निश्चित मन व बुद्धि वाले का लक्ष्य है
अनिश्चित मन वाले स्वर्ग के सुख से पीड़ित हैं.
ऐश्वर्य में सुख चाहने वाले फल रूपी क्रिया में
अपने मन व बुद्धि को स्थिर और आसक्त करते रहते हैं.
वेद कर्मकाण्ड द्वारा फलरूप क्रिया का सम्पादक है.
आसक्ति विहीन होकर तुम हर्ष,शोक,द्वंद्व,क्षेम रहित हो जा
स्वयं की अनुभूति कर और निष्काम कर्म में
स्वयं के अस्तित्व को उपस्थित कर.
इस युद्ध में इस हेतु व्यर्थ व्यामोह में योजित न कर
अपनी सम्पूर्णता से, एकाग्रता से शत्रु के विरुद्ध शस्त्र उठा.”
“वेद में विद्वानों का प्रयोजन दीर्घ से ह्रस्व हो जाता है
जब वेदग्य प्राणी वेद-तत्व को भली-भांति जान लेता है.
हर ज्ञान का प्रयोजन ब्रह्म को जानने हेतु ही सृजित हुआ है.
ब्रह्मतत्व के साक्षात्कार के बाद प्राणी सत्य जान जाता है.
हे अर्जुन,ज्ञानवान प्राणियों को कर्म करने में ही आनन्द है
ब्रह्म से साक्षात्कार के बाद वह कर्मफल से निरासक्त हो जाता है.
अत: तुम निष्काम भाव से कर्म तो करो क्योंकि ज्ञान से युक्त हो
किन्तु,उसके परिणाम में आसक्ति न रखो यह कर्म का धर्म है.
कर्म की सिद्धि अथवा असिद्धि से अनासक्त हुआ प्राणी ही
सकाम और अकाम से विरक्त हुआ प्राणी वस्तुत: कर्मयोगी है,
अत: फल से परे अपने प्रयास पर सम्पूर्ण दृष्टि स्थिर रख.
मैं कृष्ण इसे “समत्व” कहता और जानता हूँ तू भी ऐसे ही जान.
हर्ष,और विषाद में सम होना ही है समत्व हे अर्जुन.”
“प्राणी समरूप होकर निरहंकार विवेक से युक्त होता है और इसलिए
पुन्य में और पाप में पुन्य और पाप से परे मात्र कर्म देखता है
और इसलिए आध्यात्म में परमपद का अधिकारी हो जाता है.
अत: परमात्मा से एकात्म हेतु अपनी चेतना को परमात्मा में
अचल और स्थिर कर.
पाप और पुण्य से स्वयं को पृथक करना
या स्वयं को पाप और पुण्य से अनावृत करना ही
ब्रह्मबुद्धि को स्वयं में करना है आवेष्टित.
कर्मयोगी प्राणी
कर्म में पाप और पुण्य की विवेचना किये बिना
कर्म से उत्पन्न फल में अनासक्त होता हुआ
कर्म सम्पादक है.
इसलिए हे पृथा पुत्र, तू कर्म कर .”
“शास्त्र के और शस्त्र के ज्ञान में
अनेक सूत्र और उसकी मीमांसा से ज्ञान-बुद्धि को भ्रमित मत कर
ज्ञान के गहन अंधकार पक्ष से स्वयं को
निर्लिप्त रख.
और युद्ध कर.”
कर्म और ज्ञान का भेद अर्जुन को अस्थिर करता
ज्ञान से उत्पन्न व ज्ञान से निर्धारित कर्म की इस
व्याख्या से विचलित
अर्जुन ने कहा “हे प्रिय सखा कृष्ण,
श्रेष्ठ क्या है? कर्म या ज्ञान! “
“कर्म के पूर्व और कर्म के पश्चात् ,
कर्ता की स्थिति मुझे विस्तार से कहें.”
“हे अर्जुन, कर्म से पूर्व वह ज्ञानयोगी धर्म की
विवेचना करता हुआ कर्मयोगी है और
कर्म के पश्चात् निष्काम भाव से कर्मोद्धत
कर्मयोगी है.”
“ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ वह धर्म है जो
आत्मा को मनुष्य से परम ईश्वर को प्रेरित करता है.
युद्ध करते हुए हे अर्जुन, तुम उस धर्म के उत्थान में
योगदान करता हुआ निष्काम कर्म कर.”