अनहोनी
लघुकथा
अनहोनी
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बेरोजगारी और गरीबी से तंग अच्छी शिक्षा के बाद भी रहीम बहुत परेशान था। तमाम कोशिशों के बाद भी जीवन यापन का रास्ता नहीं मिल रहा था। अपनी इस दुविधा में सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका दोस्त शिवा ही था जो उसको हिम्मत देता और आने वाले अच्छे कल की उम्मीद जागृति करता रहता था।
श्याम की भी माली हालत अच्छी नहीं थी, फिर भी वो यथासंभव उसकी मदद करता ही रहता था। बहुत बार प्रतियोगी परीक्षाओं में रहीम सिर्फ़ शिवा की बदौलत ही शामिल हो पाता था। शिवा लगातार उसे उम्मीद न छोड़ने की सलाह देता।कुछ ट्यूशन भी दिला दिया था। पिता के न होने से रहीम को अपने साथ माँ की भी चिंता रहती थी। पर लगता था जैसे दुर्भाग्य उसे छोड़ना ही नहीं चाहता हो।
शिवा भी रहीम को लेकर चिंतित रहता था,उसे अहसास था कि विपरीत परिस्थितियों में हौंसला ही बड़ा मरहम है। पर अब रहीम का हौसला जैसे जवाब दे रहा था।
रह रहकर वह आत्महत्या की बात करने लगा। शिवा उसे माँ की दुहाई देता, हर तरह से समझाता और विश्वास दिलाता कि कोई अनहोनी जरूर होगी और सब कुछ ठीक हो जायेगा।
रहीम बार निराशा भरी बातें ही करता जा रहा था।दोनों घर के बाहर एक पड़े टूटे तख्त पर बैठकर बातें कर रहे थे।तभी एक कार आकर दरवाजे के सामने रुकी। कार से उतरने वाला शख्स बिना कुछ विचार किए दोनों के पास पहुंच कर उनसे पूछा क्या ये अफजल भाई का घर है ?मुझे उनके बेटे से मिलना है।
रहीम बोला जी ये उन्हीं का घर है और मैं उनका बेटा हूँ।मगर आपको काम क्या है ?
तब उस शख्स ने दुःखी स्वर में कहा-मैं शर्मिंदा हूँ।मेरा नाम चंद्रप्रकाश है।मैं तुम्हारे अब्बा का दोस्त हूँ और जिस फैक्ट्री में काम करते थे उसका मालिक भी।
फैक्ट्री में हम भले ही मालिक और वो मुलाजिम रहे हों,पर फैक्ट्री के बाहर हम अच्छे दोस्त थे।बहुत बार तुम्हारे अब्बू जो रोटियां घर से ले जाते थे,मैं भी खा लिया करता था।तुम्हारे अब्बू ने मरते समय तुम दोनों का ख्याल रखने को कहा था,परंतु उसी दिन मुझे विदेश जाना था, इसलिए मैं अब्दुल भाई की मिट्टी में भी शामिल न हो सका। तब से करीब तीन साल बाद कल ही लौटा हूँ ।मुझे अहसास हो रहा है कि शायद ये मेरी भूल है या ईश्वर की इच्छा, पर तुम्हारी हालत स्वतः सबकुछ कह रही है।
रहीम कुछ बोल नहीं सका,लेकिन उसकी आंखों से बहते आँसू सब कुछ बयां कर रहे थे।
चंद्र प्रकाश जी ने उसके आँसू पोंछते हुए कहा जाओ अम्मी को भी लेकर आओ।।आज से तुम हमारे साथ रहोगे और फैक्ट्री की देखरेख करोगे।
मगर अंकल मैं तो आपको जानता तक नहीं।
मैं ही तुम्हें कहाँ जानता हूँ? मै तो बस इतना जानता हूँ कि तुम मेरे दोस्त के बेटे हो और मैंने उन्हें तुम लोगों का ख्याल रखने का भरोसा उनके मरते समय दिया था। बस वही भरोसा निभाने आया हूँ।
चलिये मैं आपकी बात मानता हूँ पर आपको मेरी भी एक बात माननी होगी अन्यथा मैं आपके साथ नहीं चल सकूँगा। आपको मेरे दोस्त को भी नौकरी पर रखना होगा।क्योंकि आज मैं आपको मिल रहा हूँ तो अपने इसी दोस्त की बदौलत वरना अब तक मैं शायद आत्महत्या कर चुका होता।
अगर तुम्हारा दोस्त तैयार हो तो मुझे कोई एतराज नहीं।
मगर रहीम……। रहीम ने शिवा कि बात काटते हुए कहा अगर मगर की गुंजाइश नहीं है दोस्त।अगर तूने मेरी बात नहीं मानी तो मैं भी नहीं जाउंगा।
रहीम की जिद के आगे शिवा ने हथियार डाल दिए।
रहीम इस सुखद और खूबसूरत अनहोनी के लिए खुदा का हाथ उठाकर धन्यवाद कर रहा था।
चंद्र प्रकाश जी रहीम और शिवा को गले लगाकर रो पड़े और बोले- तुम्हारे रुप में जैसे मेरा दोस्त फिर से मेरे पास लौट आया है।आज निश्चित ही उसकी आत्मा बहुत खुश हो रही होगी। उसकी शिकायत भी दूर हो गई होगी।
फिर दोनों को अपने से अलग करते हुए बोले-मगर तुम दोनों अच्छी तरह समझ लो ,इस दोस्ती को कभी स्वार्थ और लालच की नजर से मत देखना।तुम दोनों की मेरे दिल और मेरी फैक्ट्री में तभी तक जगह है,जब तक मेरे और अब्दुल भाई जैसे दोस्ती के भाव जिंदा हैं। सच कहूं तो अब्दुल हमेशा मेरे मन में जिंदा है और मैं उसे खो नहीं सकता।
फिर भी यदि तुम दोनों चाहोगे तो कि अब्दुल एक बार फिर से मर जाय तो ये तुम दोनों की मर्जी।
रहीम और शिवा चंद्र प्रकाश जी के कदमों में झुक गये। उन्होंने दोनों को उठाकर कर गले से लगा लिया।
रहीम की माँ दूर खड़ी सब कुछ देख सुन समझने की कोशिश कर रही थीं। उनकी आँखों से बहते आँसू जैसे इस नायाब अनहोनी के अवसर पर पति अब्दुल को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि दे रहे थे।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
8115285921
©मौलिक, स्वरचित
23.07.2021