अनरूपा
“मुबारक हो सर् आपके बेटी हुई है”, ये कहते हुए नर्स ने उस नवजात बच्ची को सुंदरम की गोद में रख दिया. सुंदरम ने खुशी से उस बच्ची की ओर देखा और देखते ही उसके चेहरे से खुशी मानो गायब सी हो गयी. उसने बच्ची को तुरंत अपनी पत्नी सीमा के बगल में रख दिया. सीमा ने जैसे ही देखा उसकी आँखों से आँसू बह निकले. आँसू किसी खुशी के नहीं वरन दुःख के थे. सुंदरम और सीमा जितने ही रूपवान थे उनकी बेटी उतनी ही कुरूप, रंग साँवला, नाक व होंठ अनुपातानुसार बड़े, चेहरे पे साँवले रंग को भी पीछे छोड़ता एक बड़ा सा काला दाग. वो दोनों बस यही सोचते थे कि ना जाने भगवान ने किन कर्मों की सज़ा उन्हें दी है. सुंदरम और सीमा का एक 4 साल का बेटा भी था.. माधव। दिखने में सुंदर, गौर वर्ण, बड़ी आंखें और मधुर वाणी। माधव ने उस बच्ची की ओर देखा और सुंदरम से पूछा,” पिताजी ये मेरी बहन है ना छोटी सी? कितनी प्यारी है ना”. उस भोले बच्चे को अभी रंग रूप की समझ ही कहाँ थीं. सुंदरम कुछ भी ना बोला।
वक़्त आ गया था, परिचितों की आवा जाही शुरू हुई, बच्ची को देखने रिश्तेदार आ पहुंचें. सभी ने उन्हें मुबारकबाद दी और बच्ची को देखते ही सभी के मुँह बन गए. सब कुछ ही मिनट में वहां से चल दिये. एक दो ने शगुन का लिफ़ाफ़ा दे तो दिया बेमन से पर बाकी सभी बिना शगुन दिए ही लौट गए कि कौन इस मनहूस बच्ची पर अपने पैसे बर्बाद करे. खैर वक़्त बीता, बच्ची 10 महीने की हो चली थी, सुंदरम ने अनेकों प्रयास कर डाले थे उस बच्ची को बेचने के पर बच्ची देखते ही ख़रीदार वापस लौट जाते। अब सुंदरम और सीमा हार मानकर बैठ गए अब आखिरकार उन्हें ही इसे पालना पड़ेगा। दोनों ने अपनी बच्ची का नाम रखा – अनरूपा. दोनों बच्चे बड़े होने लगे थे, माधव अब 10 वर्ष का था और अनरूपा 6 वर्ष की हो चली थी. माँ बाप की बातों का माधव पर भी असर हुआ था, अब वो भी अपनी छोटी बहन से दूर रहने लगा था।
“अनरूपा ए अनरूपा, अरे कहाँ मर गयी कलमुँही, बोल क्यूँ नहीं रही? झाड़ू पोछा कर लिया हो तो इधर मर आकर जल्दी.”- सीमा रसोईघर से चिल्लाते हुए बोली। “जी माँ अभी आयी”, अनरूपा चुपचाप अपनी माँ के पास चल दी. उस मासूम के पास कोई ना था जिससे वो अपनी व्यथा, अपना दर्द बांट सके। “चल जल्दी ये बर्तन साफ कर और फिर ये 2 बासी रोटी रखी हैं डिब्बे में से निकाल कर खा लेना” – उसकी माँ बोली. बेचारी अनरूपा चुपचाप बर्तन साफ करने लगी, इतने में सब्जी काटते हुए उसकी माँ की उंगली कट गयी तो उसने सारा इल्ज़ाम उस मासूम पर जड़ दिया- “मनहूस कही की, जब इसकी शक्ल देखलो तो बुरा वक़्त आ जाता है, अरे जल्दी बर्तन मांज और भाग यहां से, मेरी उंगली तेरी वजह से कटी है अब तुझे खाना नहीं मिलेगा, भाग यहां से”. अनरूपा बर्तन मांजने के बाद रोती हुई वहां से चली गयी।
ऊपर वाला भी ना जाने क्या चाहता है, उस मासूम बच्ची को अभी और ना जाने क्या क्या देखना सुनना बाकी था। अनुरूपा भाग कर मंदिर में बैठ गयी और रोने लगी। जैसे जैसे उसकी उम्र बढ़ती गयी, समझ आती गयी, भाग्य के आगे विवश वो बेचारी अब सब चुपचाप सहन कर जाती थी वो चाहे कडुवी बातें हो, माँ बाप की मार हो या भाई और बाहर वालों के ताने। अनरूपा 16 बरस की हो चली थी, और माँ बाप के लिए वो एक बोझ बनती जा रहीथी, वो भी थक चुके थे लोगों के ताने सुन सुन के। उसकी शादी की बात चलने लगी, उसके लायक लड़का ढूंढा जाने लगा। “पतानहीं कहां से ये मनहूस हमारे गले पड़ गयी है, पीछा ही नहीं छूटता इस कलमुँही से, हाय राम! ना जाने अब और कब तक इसे झेलना पड़ेगा, कमबख़्त का मुंह देखते ही सारे लड़के वाले उल्टे पांव चलते बनते हैं” उसकी माँ सर पर हाथ रखते हुए परेशान स्वर में बोली. अनरूपा भी अब परेशान हो चुकी थी, हर रोज़ वो यही सोचती थी कि उसका क्या कसूर है, क्या उसने कहा था भगवान से ऐसा बनने को, नहीं ना, उसे तो उस उपरवाले ने ही ऐसा बना कर भेजा था फिर उसे ये सब क्यूँ झेलना पड़ रहा है। अनरूपा अपनी माँ के पास गई और थोड़ा डरते,संभलते अपनी वाणी को मध्यम स्वर में रखते हुए बोली-” माँ आप परेशान ना हो, सब जल्दी सही हो जाएगा, अब आपको या पिताजी को या किसी को भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं होगी।” उसकी माँ बोली-“क्यों , कुलनाशिनी मरने जा रही है क्या? अच्छा है जा मर जा कहीं, हमारे भाग्य खुले”. ये कह कर वो रोने लगी।
अनरूपा फिर भागकर मंदिर में चली गयी, वहाँ बैठकर वो कई घंटे रोती रही. फिर अचानक उसका मन शांत हुआ, कुछ देर भगवान की मूर्ति को निहारती रही, फिर बोली- ,” क्या कुरूप होना इतना बड़ा अपराध होता है प्रभु? क्या रूप का आंकलन सिर्फ बाहरी सौंदर्य से होता है? क्या दिल और मन का रूपवान होना कोई मायने नहीं रखता? उस रूपवान होने का क्या फायदा जो अंदर से कुरूप हो, और उस कुरूप को कौन पूछता है जो अंदर से रूपवान हो? तुमने मुझे कुरूप बनाकर भेजा है प्रभु, अब मैं इस संसार को और नहीं झेल सकती, अब मैं वहीं आ रही हूँ- तेरे पास, तू किसे पसंद करता है ये भी जान लुंगी मैं। मुझे स्वीकार कर सकता है तो कर।” और ये कहते हुए अनरूपा मंदिर के पास बने कुएं में कूद गई।
उसकी लाश कुँए के पानी पर उतरा रही थी, एकदम शांत, चेहरे पे ना तो कोई भय था ना ही कोई चिंता, होठों पे एक हल्की सी मुस्कान थी मानो सही मायने में अब उसे सुकून मिला हो। गांव के लोगों को उससे इतनी नफरत थी कि उन्होंने उसकी लाश को वहां से निकाला नहीं वरन उस कुँए को सदा के लिए बंद करा दिया।
©ऋषि सिंह