अनजान दीवार
कोई दीवार अनजान
कैसे हो सकती है !
प्रकृति कोई दीवार
रेखा खिंचती। नहीं !
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जो है वे सब काल्पनिक,
इस धरा पर पर्वत मालायें है,
जीवन है जहां तहां मिलते हैं
सबूत
बनती है श्रंखला
श्रंगार है गहरा
पानी बहता है
बहाब तय करता है
नाला है, नदी है
तय करता पूरब है
या है पश्चिम उत्तर दक्षिण
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दो मुल्क बंट जाते हैं !
पड़ जाते हैं, अलग थलग,
इसे भले तुम कहो,
अनजान दीवार,
या
कहे प्रभु का दीदार,
नज़रें तुम्हारी
फैल पायेंगी जितनी
अनजान दीवारें
दूर रहेंगी उतनी .।।
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जय बाबा की