अध्यात्म एक अनुभूति, आयोजन से दूर,
*गुफ्तगू थी तेरे मेरे बीच में,
जमाना समझने लगा !
क्या खाक समझा ?
जो बात थी अन्दर के भावों की,
उन्हें बाहर परखने लगा,
.
ताला बंद ही कब था ?
अनुमान लगा बैठे !
कल्पना नाम रख !
हकीकत में छलांग लगा बैठे !
मालूम ही नहीं,क्या चाहिए ?
मुफ्त में जेल की शलाखों में कैद हो बैठे,
ताले सच में लगे थे,
एक नहीं,
बहुतों से जबरन व्यवहार कर बैठे !
जमाना साथ था,
भेडिये भी शेर की चाम ओढ़ बैठे,
हकीकत सामने आनी ही थी,
बंद पिंजरे थे ही कहाँ ?
जो मुक्त होते !!
संदेश अध्यात्मिक सम्मोहन से बचे,
डॉ महेन्द्र सिंह खालेटिया,