अधूरे रिश्तों को, बनाओ न
कण-कण की भाँति
मुझको पहचानो न
तन-मन में दबी बात
धीरे-धीरे गुनगुनायों न
दूर शिखर में खड़ी कही
मुझसे मिलने आओ न
परछाई बन मेरी तूम
घंघोर बादल लाओ न
अधूरे रिश्तों को,
बनाओ न
सांसों से सांसें बांधने वाली
कोई कहर बरसायों न
कठिन राहों पे हुँ मैं खड़ा
चाँदनी की शीतलता के नीचे बतलाओ न
ख्वाब देखु तेरे तो
थोड़ा-सा मुस्कुराओ न
कान आड़े खड़ा हुँ मैं
झंकृत अपनी सुनाओ न
अधूरे रिश्तों को,
बनाओ न
पूरा हो हुँ तुझसे ही
कोई ऐसा मंजर लाओ न
हे,भगवान विनती मेरी
उसे भी जाके बताओ न
मर जाऊगा तब मिलेगी
ऐसे सपनें मत दिखाओ न
तन्हाइयों से घिरा हुँ मैं
जल्दी से उससे मिलवायों न
अधूरे रिश्तों को,
बनाओ न.
स्वरचित
‘शेखर सागर’