अधूरी ख्वाहिशें
अधूरी ख्वाहिशों का बाजार ये
यहाँ ख्वाहिशों के सौदागर,
मिट्टी को धवल कागजों में
लपेट कर बेचते हुए बाजीगर।
किसकी कब पूरी हुई यहाँ
हर वह ख्वाहिशें शिद्दत से,
देखा नहीं ऐसा कोई बाजीगर
हमने इस जमीन पर मुद्दत से।
मुझे लगता है जिस दिन पूरी
हो जायेगी हर ख्वाहिशें तेरी,
चिरंतन चक्र दुनिया का फिर
शेष क्या चाह रह जायेगी मेरी।
न तुम्हे किसी की जरूरत और
किसी को तेरी नही रहेगी,
समाप्त जीने का मकसद होगा
सृष्टि कर्म रुक कर रहेगी।
यह एक पूरी होती नही कि
दूसरी सर उठा लेती है,
सच कहें तो ये हमे जीने का
एक मकसद सदा से देती है।
निर्मेष ये ख्वाहिशें ही अधूरी
जिसकी चाह में हम जीते है,
न जाने कितने जहर को हम
अमृत समझ कर पीते है।
पर ये न कभी पूरी हो सकी है
और न कभी पूरी हो कर रहेगी,
अधूरी ख्वाहिशों के बल पर ही
यह दुनिया सनातन चलेगी।
निर्मेष