*अधूरा यज्ञ (नाटक)*
अधूरा यज्ञ (नाटक)
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काल :लगभग 5000 साल पहले
*स्थान : भारत का महान राज्य अग्रोहा
*पात्र परिचय :
महाराजा अग्रसेन : अग्रोहा के महान शासक
मंत्री : महाराजा अग्रसेन के मंत्री
महाराजा शूरसेन : महाराजा अग्रसेन के भाई
इसके अतिरिक्त दरबारी गण ,प्रजा जन ,यज्ञ संपन्न कराने वाले पंडित तथा यज्ञ का घोड़ा भी एक प्रमुख पात्र है।
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पार्श्व में स्वर गूँजता है :
यह लगभग 5000 साल पहले का समय है ।अग्रोहा में प्रतापी राजा अग्रसेन का शासन है। महाराजा अग्रसेन अपने मंत्री के साथ राज्य का सघन दौरा करके लौटे हैं और चिंतित मुद्रा में हैं ।
( दृश्य 1)
*मंत्री : महाराज ! जब से आप राज्य का दौरा करके लौटे हैं कुछ चिंतित से जान पड़ते हैं।
*महाराजा अग्रसेन : हां मंत्री जी ! मेरा हृदय राज्य की व्यवस्था देख कर बहुत खिन्न महसूस कर रहा है ।
मंत्री : ( आश्चर्य से) महाराज ! यह आप क्या कह रहे हैं ? संपूर्ण पृथ्वी पर अग्रोहा से अच्छी राज्य- व्यवस्था कहीं नहीं है। आपके राज्य में लोग घरों और दुकानों पर बिना ताला लगाए चले जाते हैं। कोई चोरी डकैती रहजनी कहीं नहीं है। सर्वत्र कानून का शासन है ।अग्रोहा में कोई गरीब नहीं है ।धन की न्यूनतम आवश्यकताओं की दृष्टि से सभी समृद्ध हैं ।
महाराजा अग्रसेन : बात आर्थिक विकास की नहीं है । मैं जानता हूँ कि मेरे राज्य में सभी धनवान हैं । सब निर्भय हैं किसी का उत्पीड़न व शोषण नहीं होता है । मगर एक बात राज्य- भ्रमण के दौरान मैंने महसूस की है। राज्य में जन्म के आधार पर प्रजा के मध्य विभाजन की रेखाएँ खिंची हुई हैं।
*मंत्री : महाराज ! मैं कुछ समझा नहीं।
महाराजा अग्रसेन : बात यह है कि राज्य के भ्रमण के दौरान मैंने पाया कि हमारे राज्य में अलग-अलग समुदाय अलग-अलग बस्तियों में रहते हैं । उनके बीच कोई झगड़ा तो नहीं है लेकिन फिर भी न जाने क्यों मुझे एक अदृश्य दीवार खिंची नजर आई ।
*मंत्री : महाराज !यह तो हजारों साल से होता चला आया है। अलग-अलग समुदाय जन्म के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बँटे रहते हैं ।लेकिन फिर भी आपके राज्य में तो भाईचारे की ऐसी सुंदर स्थिति है कि इसकी मिसाल समूचे भारतवर्ष में दी जाती है।
*महाराजा अग्रसेन : – जो हजारों साल से होता चला आया है, जरूरी तो नहीं है कि वही हमेशा चलता रहे। अगर राज्य में कोई विकृति दिखाई पड़ रही है तो राज्य शासन का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उसे दूर करे। प्रजा के मध्य जन्म के आधार पर विभाजन की दीवार मुझे सहन नहीं है। इस दीवार को ढहाना ही होगा ।
*मंत्री :- महाराज ! (कांपते हुए) यह नहीं हो सकता । जन्म के आधार पर सब अलग समुदायों में विभाजित हैं। वह एक कैसे हो सकते हैं ? बस हम उन्हें विकास की समान सुविधाएं ही उपलब्ध करा सकते हैं।
*महाराजा अग्रसेन :- देखिए मंत्री जी ! मैंने तय कर लिया है कि मैं दरबार बुलाऊँगा और उसमें इस समस्या को रखा जाएगा, ताकि इसका समाधान ढूँढा जाए । आप दरबार की तिथि की घोषणा कीजिए ।
मंत्री : ( सिर झुकाकर) जी महाराज ! जैसी आपकी आज्ञा। वैसे महाराज ,मेरी राय फिर भी यही है कि जन्म के आधार पर तो विभाजन ईश्वर निर्मित है । उसे समाप्त करने का प्रयत्न ….
*महाराजा अग्रसेन :- मंत्री जी ! दरबार की तिथि घोषित कीजिए।
*मंत्री :- जी महाराज ….
(फिर पर्दा गिर जाता है ।)
( दृश्य दो)
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
अग्रोहा का दरबार सजा हुआ है। प्रमुख दरबारीगण चमचमाती पोशाकों को पहने हुए सुंदर आसनों पर विराजमान हैं । महाराजा अग्रसेन सिंहासन पर सधी हुई मुद्रा में विराजमान हैं।
*मंत्री :- माननीय अग्रोहा नरेश ,प्रजावत्सल, न्यायमूर्ति महाराजा अग्रसेन की जय हो। अग्रोहा में रामराज्य है । सब सुखी हैं। सब निरोगी हैं । सब धनवान हैं। फिर भी महाराज चाहते हैं कि अग्रोहा की प्रजा जन्म के आधार पर जो विभिन्न बस्तियों में विभाजित है, वह एक हो जाए और उनमें अद्भुत समानता आ जाए । इस बारे में महाराज स्वयं योजना की घोषणा अपने श्रीमुख से करेंगे।
महाराजा अग्रसेन : समस्त दरबारीगण तथा मेरे प्यारे अग्रोहा वासियों ! अब आप सब में कोई भेदभाव नहीं है ।सबको समान सुविधाएँ हैं। समान रूप से आगे बढ़ने के अवसर हैं । सब समृद्ध हैं। केवल एक ही कमी मैंने महसूस की है कि अग्रोहा का समाज जन्म के आधार पर एक दूसरे से भेदभाव करता है। यह विभाजन मुझे परेशान करता है और मैं इस विभाजन की दीवार को समाप्त करना चाहता हूँ। मोटे तौर पर मैंने अग्रोहा में अठारह समुदाय महसूस किए हैं । इन अठारह समुदायों में आपस में मिलना जुलना भी कम है । एक समुदाय दूसरे समुदाय से कटा- कटा सा रहता है ।एक समुदाय के भीतर जो एकता और भाईचारा रहता है , वह उनका दूसरे समुदाय के साथ नहीं होता । समस्या का मूल यह है कि एक समुदाय में विवाह संबंध केवल अपने समुदाय में ही होते हैं । वह अपने समुदाय के बाहर जाकर विवाह नहीं करते। मैंने यह निश्चय किया है कि अग्रोहा के अठारह समुदायों में यज्ञ का आयोजन करूँगा तथा इसके माध्यम से प्रत्येक समुदाय को एक ऋषि गोत्र- नाम प्रदान किया जाएगा । जिस तरह जो गोत्र का नामकरण होगा, वही उस समुदाय का गोत्र कहलाएगा । गोत्र ही तो मनुष्य की पहचान का आरंभिक बिंदु है। इससे पहले की सारी पहचान फिर नहीं रहेगी । सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि एक गोत्र के व्यक्तियों में आपस में विवाह करने पर प्रतिबंध रहेगा। अनिवार्य रूप से व्यक्ति को अपने से भिन्न दूसरे गोत्र में विवाह करना पड़ेगा। इस तरह सभी अठारह गोत्र अलग-अलग होते हुए भी भीतर से विवाह संबंध की डोर से बँधते चले जाएँगे और बहुत जल्दी ही एक ऐसा समाज विकसित होगा, जिसे हम सही मायने में एकताबद्ध समाज कह सकेंगे। अब आप अपनी राय रखें।
एक दरबारी : महाराज !आज जो आपने घोषणा की है, वह संसार में अतुलनीय है । इससे महान अग्रवंश एक सूत्र में बँधकर निकलेगा। मैं इसका समर्थन करता हूँ।
*दूसरा दरबारी :- महाराज ! अपने गोत्र में विवाह न होने से समस्त गोत्रों में आपसी विवाह संबंध धीरे- धीरे स्थापित हो जाएंगे। तब गोत्र अलग-अलग भले ही रहेंगे, किंतु आपसी एकता का अटूट दृश्य पैदा होगा। मैं भी समर्थन करता हूँ।
तीसरा दरबारी: महाराज ! आपकी योजना तो सही है और मैं भी उसका समर्थन करता हूँ, किंतु यदि राज्य के कुछ उपद्रवी लोग अनिवार्य अंतर्गोत्रीय- विवाह का विरोध करेंगे तो क्या होगा?
महाराजा अग्रसेन : ( क्रोधित होकर अपनी तलवार को म्यान से बाहर निकालते हैं )उनके लिए मेरी तलवार है । किसका साहस है कि ऐसे शुभ कार्य के मार्ग में बाधक बने और उपद्रव करने की कल्पना भी कर सके ?
(संपूर्ण दरबार में शांति छा जाती है। किसी का साहस महाराजा अग्रसेन की योजना के विरोध में खड़े होने का नहीं हो पाता । मंत्री जी तब दरबार को संबोधित करते हैं।)
*मंत्री :- माननीय उपस्थित सभासदों ! महाराजा जी की आज्ञानुसार शीघ्र ही अठारह यज्ञों का आयोजन किया जाएगा। सभी सज्जनों को उनके नए गोत्र में प्रवेश मिलेगा और तत्पश्चात पुरानी विभाजनकारी पृष्ठभूमि सदा- सदा के लिए समाप्त हो जाएगी । यह गोत्र ही महाराज के वंशज होंगे। वह इन्हें पुत्रों के समान ही चाहेंगे। वह इनके भीतर निवास करेंगे।
(दरबारसभा समाप्त हो जाती है। पर्दा गिर जाता है।)
(दृश्य 3)
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
(अग्रोहा में यज्ञ चल रहे हैं । एक-एक करके आज यह सत्रहवाँ यज्ञ है ।महाराजा अग्रसेन यज्ञ में पधारे विद्वान ऋषियों का अभिवादन करते हुए कहते हैं)
महाराजा अग्रसेन : हे पूजनीय श्रेष्ठ जनों ! आपने सत्रह यज्ञ पूर्ण करके अग्रोहा तथा मुझ पर बड़ा भारी उपकार किया है। इन यज्ञों के द्वारा हम अग्रोहा की जन्म पर आधारित विभाजनकारी दीवारों को ढ़हा पाएंगे । हर समुदाय का अपना एक गोत्र होगा तथा इस प्रकार समूचा अग्रोहा पूरे अठारह गोत्रों में बँट जाएगा। बँटने के बाद भी सब भीतर से एक होंगे , क्योंकि विवाह के अवसर पर इन सभी अठारह गोत्रों में कोई अंतर नहीं समझा जाएगा। आप सब बधाई के पात्र हैं कि जो आप इस महान एकता के यज्ञ में सहभागी बने और आपने अग्रोहा को एक सूत्र में बाँधा ।
*सेनापति :- महाराज ! मुझे सूचित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि अग्रोहा में सर्वत्र शांति है। समस्त प्रजाजन अठारह गोत्रों के यज्ञों के आयोजन से खुश हैं। अपना- अपना नया गोत्र प्राप्त करके उनमें एक महान कार्य से जुड़ने का भाव आ रहा है ।
*महाराजा अग्रसेन :- बहुत प्रसन्नता का विषय है कि अग्रोहा में सत्रह यज्ञ पूर्ण हो चुके हैं। अब केवल एक अंतिम यज्ञ बचा है । इसके द्वारा अठारहवाँ गोत्र भी निश्चित हो जाएगा और एक नए युग का सूत्रपात होगा। (महाराजा अग्रसेन चले जाते हैं । पर्दा गिर जाता है ।)
( दृश्य चार )
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
(यज्ञ मंडप पर महाराजा अग्रसेन विराजमान हैं । यह अठारहवाँ यज्ञ है ।)
*घोषणा की जाती है :- सबको सूचित किया जाता है कि अग्रोहा में अद्भुत और महान यज्ञों की श्रंखला में सत्रह यज्ञ पूर्ण हो चुके हैं। सत्रह गोत्रों का निर्धारण हो चुका है, तथा अब अठारहवें यज्ञ का आरंभ हो रहा है। जिसके माध्यम से अठारहवें गोत्र का निर्धारण होगा ।
मंत्री : महाराजा अग्रसेन जी की आज्ञा से यज्ञ आरंभ करने का शुभ अवसर उपस्थित हो गया है ।कृपया यज्ञ आरंभ किया जाए ।
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
(यज्ञ आरंभ हो जाता है । मंत्रोचार के मध्य अग्नि प्रज्वलित की जाती है। महाराजा अग्रसेन सिंहासन से उठकर यज्ञशाला में इधर-उधर टहलने लगते हैं । इसी समय यज्ञ में बलि देने के लिए घोड़ा लाया जाता है। घोड़ा डरा हुआ है । वह संभवतः अपनी मृत्यु को नजदीक से देख कर काँप रहा है। घोड़े ने रस्सी छुड़ाकर भागने की काफी कोशिश की । शोर भी मचाया। टाँगे भी हवा में उठा लीं। अंत में घोड़े की आँखों से अपनी असहाय अवस्था को देखकर आँसू बहने लगे। तभी महाराजा अग्रसेन की दृष्टि घोड़े की तरफ पड़ी । )
*महाराजा अग्रसेन :- (घोड़े की तरफ देखते हुए )अरे – अरे !यह निर्दोष पशु क्या मेरे कारण ही आज मारा जाएगा ? इसकी आँखों में जो भय और विवशता छिपी है, वह मुझसे देखी नहीं जा रही है । इससे ज्यादा अभागा और कौन होगा कि यह आज मेरी यज्ञशाला में खड़ा हुआ है किंतु मेरे ही हाथों मारा जा रहा है ।
(सभी लोग महाराजा अग्रसेन की भावुक स्थिति देख रहे हैं ।)
*एक व्यक्ति :- अरे देखो ! महाराज कितने भावुक दिखाई पड़ रहे हैं ।
*दूसरा व्यक्ति :- महाराज के हृदय पर घोड़े के अश्रुओं का प्रभाव पड़ता साफ दिख रहा है ।
महाराजा अग्रसेन : ( अपने सहायकों से कहते हैं) मैं राजमहल में जाकर विश्राम करता हूँ। अब मैं यहाँ ठहर नहीं पाऊँगा। सहायक :जो आज्ञा महाराज !
(महाराजा अग्रसेन थके कदमों से धीरे-धीरे अपने महल में चले जाते हैं । पर्दा गिर जाता है ।)
( दृश्य पाँच)
(रात्रि का समय हो चुका है। महाराजा अग्रसेन को अभी भी नींद नहीं आ रही है। वह बेचैनी के साथ कमरे में टहल रहे हैं।)
*महाराजा अग्रसेन :- (स्वयं से बातें करते हुए कहते हैं ) मुझे आज नींद भला कैसे आएगी ? मैंने आज ही तो यज्ञशाला में बलि हेतु लाए गए घोड़े की आँखों में भय देखा था। वह रो रहा था । क्या ऐसा यज्ञ मैं उचित कहूँगा, जिसमें निरपराध पशु की हत्या कर दी जाए और उसकी बलि चढ़ा दी जाए ? नहीं- नहीं ! यह अग्रोहा की संस्कृति के अनुरूप नहीं होगा। हमें तो अहिंसा के भावों पर आधारित अग्रोहा का निर्माण करना है। जीवों पर दया इस राज्य की महानता का आधार होगा।
महाराजा अग्रसेन बिस्तर पर निढाल- से गिर पड़ते हैं। वह सो जाते हैं । फिर पर्दा गिर जाता है ।
( दृश्य 6)
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
( यज्ञशाला में हलचल तेज है। अठारहवाँ यज्ञ अब आगे की ओर बढ़ना चाहता है ।)
*सेनापति :- क्या बात है मंत्री जी! महाराज अभी तक यज्ञमंडप में नहीं पधारे हैं।
*मंत्री :- मुझे तो कुछ पता नहीं ? ऐसा होता तो नहीं है। पता नहीं क्या बात है? महाराज तो ठीक समय पर ही स्वयं यज्ञशाला में आते हैं। मैं महाराज के भाई महाराज शूरसेन जी से पूछता हूँ।
( मंत्री जी महाराजा शूरसेन जी के पास जाते हैं ।)
मंत्री : माननीय महाराज शूरसेन जी ! क्या आपको ज्ञात है कि महाराज अभी तक यज्ञशाला में क्यों नहीं पधारे हैं ? वह तो समय के अनुशासन का खुद ही ख्याल रखते हैं ।
महाराजा शूरसेन : मुझे भी महाराज के विलंब पर आश्चर्य हो रहा है । मैं कारण पूछने खुद महाराज के पास जाता हूँ।
( महाराजा शूरसेन अपने भाई महाराजा अग्रसेन के यज्ञशाला में आने में विलंब होने का कारण पता लगाने के लिए तेज कदमों से चल देते हैं ।)
( दृश्य 7)
( महाराजा शूरसेन अपने भाई महाराजा अग्रसेन के शयन कक्ष में प्रवेश करते हैं।) महाराजा शूरसेन : भ्राता श्री ! क्या कारण है कि आपको विलंब हो रहा है?
*महाराजा अग्रसेन :- भ्राता श्री ! यज्ञ में पशु – हिंसा मुझे पसंद नहीं आ रही है ।यज्ञ में पशु मारा जाए , यह बात मेरी अंतरात्मा सहन नहीं कर पा रही है। हमें तो अग्रोहा में ऐसी संस्कृति का विकास करना है, जिसमें सब जीवो पर दया हो। किसी की हिंसा न हो। माँसाहार वर्जित हो।
*महाराजा शूरसेन :- आप चाहते क्या हैं ? यज्ञ में पशु बलि तो प्रथा है । इसमें ज्यादा सोच- विचार की जरूरत क्या है?
*महाराजा अग्रसेन :- मैं पशु बलि की प्रथा को समाप्त करना चाहता हूँ। अर्थात् मेरे राज्य में यज्ञ तो होगा किंतु उसमें पशु की बलि नहीं होगी।
*महाराजा शूरसेन :- भ्राता श्री ! यह समय वैचारिक विवाद में उलझने का नहीं है। यज्ञ की सारी तैयारी हो चुकी है । यह तो अंतिम अठारहवाँ यज्ञ है। इसे हो जाने दो। इसमें विवाद खड़ा मत करो। मैं आपकी बात से सहमत हूँ। संसार के सब जीवों पर दया हमें करनी चाहिए, किंतु आज पशु- बलि मत रोको । आगे के लिए जैसा चाहो विधान बना लेना ।
*महाराजा अग्रसेन :- जो कार्य ठीक है, उसे कल पर टालना क्या उचित है ? अगर हम अहिंसा का सम्मान करते हैं और पशु- बलि को अनुचित कह रहे हैं ,तो इसे अमल में लाने के लिए कल का इंतजार कैसा ? आज और अभी पशुबलि पर रोक लगाना ही उचित होगा । मेरे वंशज पशुहिंसा में कदापि संलग्न नहीं हो सकते ।
*महाराजा शूरसेन :- भ्राता श्री ! आपकी बात सही है । आज ही हमें समाज से पशुहिंसा को समाप्त करना होगा ।अहिंसा की प्रतिष्ठा करनी होगी ।मैं आपके साथ हूँ।
( दोनों भाई एक साथ प्रसन्न मुद्रा में चलकर राजमहल से यज्ञशाला तक आते हैं । )
*महाराजा अग्रसेन :- समस्त उपस्थित सज्जनों ! आज और अभी से यज्ञ में पशुबलि पर रोक लगाने की घोषणा करते हुए मुझे बहुत हर्ष हो रहा है ।अब हमारे इस अग्रोहा राज्य में आज से कभी भी कहीं भी किसी भी रूप में पशु- हिंसा नहीं होगी । हम सब लोग जीवो पर दया करेंगे । उन्हें नहीं मारेंगे ।
*महाराजा शूरसेन :- महाराजा अग्रसेन की जय हो
*मंत्री :- महाराजा अग्रसेन की जय हो
*जनता :- महाराजा अग्रसेन की जय हो
*यज्ञ कराने वाला व्यक्ति :- कैसी जय ? किस बात की जय ? यज्ञ में पशुबलि तो परंपरा है । यही परिपाटी है । जानवर को मारने में पाप कैसा ? यह अहिंसा की बड़ी-बड़ी बातें राजा को शोभा नहीं देतीं। अगर पशुबलि नहीं हुई तो यज्ञ नहीं होगा । यज्ञ का बहिष्कार होगा । फिर राजा तुम ही अकेले बैठकर यज्ञ करते रहना।
पार्श्व में स्वर गूँजता है :
( यज्ञ कराने वाले अनेक व्यक्ति क्रोधित होकर एक- एक करके यज्ञशाला से उठ कर चले जाते हैं ।महाराजा अग्रसेन उन्हें समझाने की कोशिश नहीं करते हैं । वह उन्हें जाने देते हैं । )
*महाराजा अग्रसेन :- उपस्थित सज्जनों ! हमारा अठारहवाँ यज्ञ अधूरा नहीं रहा ,अपितु बाकी यज्ञों से भी श्रेष्ठ है। यह अठारहवाँ यज्ञ ही अहिंसा के भाव से आपूरित यज्ञ है । मनुष्यता की भावना के विस्तार का यज्ञ है। अठारह गोत्रों में विभक्त अग्रवाल समाज को यही अहिंसा का सूत्र आपस में बाँधकर रखेगा । राष्ट्र की एकता, तन – मन- धन की समानता तथा पशुहिंसा की कुरीति से मुक्त अग्रवंशी ही मुझे अग्रोहा में अभीष्ट हैं।
( सब लोग महाराजा अग्रसेन की जय के नारे लगाते हैं ।पर्दा गिर जाता है ।)
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर( उत्तर प्रदेश)
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