अधूरा ज्ञान
तुम्हारी जिंदगी आधी अंधेरे में क्यों गुजरती है,
हर सुबह सूरज निकलता है और तुम्हारी रात चलती रहती है।
जिसे तुम पानी कहते हो वह आग बनती है,
जिसे तुम धुँआ कहते हो वह जलजला बन तवाही करती है।
बादल बरसते हैं उसे तुम मखमली मौसम कहते हो,
उधर किसान रोता है और वक्त का तकाजा तुम भूल जाते हो।
अपने दिल-जिस्म से भी तुम अनजान रहते हो,
कभी तुम तीखा खाते हो और फिर चीनी मांगते फिरते हो।
एसी चलाकर तुम रजाई में मुँह दबाकर सोते हो,
सर्दियों में आइसक्रीम खाकर तुम नाक से बहती नदी पर रुमाल से बाँध लगाते हो।
ये कैसी समझ है प्यारे जो तुम्हें ही कुछ नहीं समझती है,
जो तुम जैसा कहते हो जो तुम जैसा करते हो वो हमेशा तुमसे उल्टा करती है।
यही आधी अधूरी जिंदगी तुम्हारी ऐसे ही गुजरती है,
दिमाग सोता रहता है और जुबान वंदे भारत बनकर रफ्तार भरती रहती है…।।
prAstya…….. (प्रशांत सोलंकी