अद्भुत है पांचाली का जीवन!
यज्ञ कुण्ड से जन्मी पांचाली,
द्रौपद की यह बेटी,
नाम दिया इसको द्रौपदी !
विवाह को भी एक यज्ञ किया गया,
मंछली की आंख का भेदन करना था!
यह लक्ष्य पाया अर्जुन ने,
जय माला से किया वरण द्रौपदी ने !
घर आने पर कर गए ठिठौली,
माता से कह गए, भिक्षा मिल गई अनोखी!
माता ने भी बिन देखे,
दे दिया बचन,
पाँचों भाई रख लो मिलकर !
मां का कथन,
अब निभाएं कैसे,
यह क्या कर गए हम विनोद में ऐसे !
माता को भी तब तक नही पता था,
पर प्रत्युत्तर में जब ,
मिली खामोशी!
घुम कर देखा ,
तो हो गई चकित सी !
फिर इस प्रकार के प्रहसन पर रोष जताया,
और,फिर अफसोस बताया !
द्रोपदी को तो अब तक यह भी नहीं पता चला था,
जिसने जिता स्वयंवर वह व्यक्ति कौन था!
अब जाकर उसको अहसास हुआ,
पांडवों के साथ उसका विवाह हुआ!
उसने माँ का आशीर्वाद कर यह स्वीकार किया,
अपने भाग्य के प्रारब्ध रूप में विचार किया !
अपने पांच पतियों के संग,
यह सुखी जीवन जी रही थी!
तभी महाराज धृतराष्ट का निमंत्रण आया,
ध्यूत खेलने को इन्हें बुलाया!
दूर्योधन को इनसे बैर था,
कपट करना इनका ध्येय था!
दाँव लगाने को शकूनी को बिठाया,
दाँव पर युद्धिष्ठर को उकसाया!
युद्धिष्ठर भी, बिना विचारे,
दांव पर दांव लगाते जा रहे,
हर दांव उल्टा पड़ रहा था,
फिर भी अगला दांव लग रहा था,
सारा राज पाट हार गया,
फिर दांव पर भाईयों को लगा दिया,
स्वयं को भी दांव में हार गया,
तब पांचाली को दांव पर लगा दिया,
यह अंतिम दांव ऐसा था,
जिसमें वह सब कुछ खो बैठा था,
इधर दुर्योधन की खुशीयों का सवाल था,
जो मार रहा उबाल था,
नैतिकता की सारी मर्यादाएं तोड़ने लगा,
द्रौपदी को अपनी जांघों पर बैठने को कहने लगा,
जब द्रौपदी ना मानी,
करने लगी आना कानी,
तो दुर्योधन ने सुनाया फरमान,
निर्वस्त्र कर दो, इसे दुशासन,
सारी राजसभा हतप्रभ रह ग ई,
ये दुर्योधन ने क्या बात कह गयी,
दुशासन ने चिरहरण को हाथ बढ़ाया,
द्रौपदी ने सकुचाते हुए स्वयं को बचाया,
और आद्र भाव से, पितामह को पुकारा,
भीष्म भी आज विवेक शुन्य हो गये,
पांचाली ने, गुरु द्रोण से कहा,
आप तो हैं मेरे पिता के सखा,
मैं आपकी पुत्री समान हूं,
द्रौण ने भी धार लिया मौन,
तब उसने कुलगुरु से पुछा,
यहां पर कौन है वह दूजा,
जिससे मैं अपनी व्यथा कहूं,
फिर महाराज धृतराष्ट्र को देखा,
जो इस घोर अपराध को किए जा अनदेखा,
महाराज मैं आपकी पुत्र वधू हूं,
और आपके दरबार में खड़ी हूं,
आपका यह लाडला मर्यादा लांघ रहा है,
मुझे सबके सम्मुख, निर्वस्त्र कर रहा है,
लेकिन महाराज तो जन्माधं जो ठहरे,
सब कुछ जानकर भी अनजान बने रहे,
और दुशासन को मौन सहमति मिल गई,
फिर तो उसने पुरी कर दी रही सही,
अब पांचाली बेचैन हो उठी,
अपने पतियों को कह बैठी,
पांच पांडवों की पत्नी को,
गांडीवधारी, और गद्दाधर को,
कितने निरीह ये लगते हैं,
कहां के बीर यह कहते हैं,
अब तो आश्ररा माधव सिर्फ तेरा है,
और यहां अब कौन मेरा है,
आंख मूंदकर वह कहने लगी,
हे कृष्ण माधव,हे हरि,
तब लीलाधर ने लीला कर डाली,
द्रौपदी की चीर इतनी बढ़ाली,
खींच-खींच कर दुशासन हारा,
दुर्योधन का गुरुर टूट गया सारा,
इस तरह से पांचाली ने लाज बचाई,
और साथ ही यह कसम भी खाई,
दुशासन के लहू से बालों को धोएंगी,
यह केश तब तक खोलकर रखूंगी,
और इस प्रण को भीम ने निभाया,
जो दुशासन को मारकर अंजलि में लहू लाया।
द्रौपदी ने और भी कष्ट सहा है,
अपने पांच पुत्रों को, मरते देखा है,
और अभिमन्यु भी तो उसको प्यारा था,
जिसको कौरवों ने,छल से मारा था,
पांच पतियों और सुभद्रा सहित,
उनका आंगन सुना रह गया था,
अब तो आशा की किरण उत्तरा पर निर्भर हो गई,
जो अभिमन्यु के पुत्र की जननी बन रही थी,
किन्तु अब भी दुश्मन खड़ा था,
जो इस जिद पर अड़ा था,
पांडवों का समूल नाश करना है,
अब उसी ने,ब्रम्हास्त्र का उपयोग किया है,
और उत्तरा के गर्भ के शिशु को मार ही डाला था,
तभी उत्तरा ने श्रीकृष्ण को पुकारा था,
बचा लो,प्रभु हमें, बहुत दुःख देख लिया है,
इस कुल का दीपक अब बुझ रहा है,
तुम तो सर्वेश्वर कृपा निधान हो,
तुम ही तो सबके जीवन आधार हो,
भक्तों की पीडा पर दौड़ आते हैं, परमेश्वर,
बचा लिया उन्होंने, पांडवों का कुल दीपक,
यह सब सहा है इस यज्ञ देवी ने,
और स्वर्गारोहण को चल पड़ी, अपने पतियों के संग में।।