अदब
किसी’ इस्कूल की बेजान सी’ मजलिस जैसे!!
अदब है शहरे ख़मोशां की परस्तिश जैसे!!
तमाम चेहरों से मुस्कान ऐसे ग़ायब है,
पढ़ा रहा हो छड़ीदार मुदर्रिस जैसे!!
न जाने कैसे काटते हैं रहबरी में गला,
कि कोई मेमना हो मुफ़्त का मुफ़लिस जैसे!!
@ कुमार ज़ाहिद,
10.2.17, 6.04