अतीत गंधा ( संस्मरण )
बस्तर के दूरस्थ एक छोटे-से गांव में मैं प्रथम बार सहायक अध्यापक पद पर नियुक्त हुआ था । वहां एक मात्र प्रधान अध्यापक महोदय थे । मेरी नियुक्ति से वहां अब हम दो शिक्षक हो गए थे । छोटे-से गांव का छोटा-सा विद्यालय था। विद्यालयीन डाक आदि पहुंचाने के लिए वहां से करीब १२ किलोमीटर दूर स्थित एक वेतन केन्द्र में जाना पड़ता था। रास्ता क्या था , पगडंडी मार्ग था जो खेतों की मेड़ों से ,छोटे निर्झर नालों से होता हुआ घने वन प्रांतर से होकर जाता था । किसी प्रकार की गाड़ी आदि का तो प्रश्न ही नहीं था। सायकल थी नहीं , सो पैदल ही जाना पड़ता था। मैं वहां नया – नया था । १९ वर्ष की अवस्था । एक दिन प्रधान अध्यापक महोदय ने विद्यालय की कोई डाक पहुंचाने के लिए दिया। अब जाना तो था ही। प्रधान अध्यापक महोदय भले मानुष थे । उन्होंने सोचा नया लड़का है । पहली बार ऐसे जंगली रास्ते से पैदल जाना है , सो उन्होंने अपने १३-१४ बरस के बेटे को मेरे साथ भेजते हुए साथ में सुरक्षा के लिए एक फरसा भी दे दिया । फरसा को देखकर मुझे ऋषि परशुराम याद आ गए । अब साथ में फरसा धारण कर जाना होगा ? मैं नया था और प्रधान अध्यापक महोदय वरिष्ठ , कुछ कहना उचित प्रतीत न हुआ । अब तो जाना ही था । हम डाक लेकर चले , हाथ में फरसा भी था , मुझे बहुत विचित्र प्रतीत हो रहा था । वहां के श्यामवर्णी वनवासी बन्धु लज्जा निवारणार्थ कटि भाग में एक गज का छोटा-सा वस्त्र धारण किए तीर धनुष , टंगिया (कुल्हाड़ी) कांधे पर लिए प्राय:दिख जाया करते थे । उन के बीच कोई बेलबाटमधारी फरसा लेकर चले कितना विचित्र लगेगा । इस विचित्र संकोचकारी स्थिति से बचने के लिए मुझे एक उपाय सूझा। कुछ दूर चलकर हमने उस फरसे को जंगल में एक जगह छुपा दिया ,और उस स्थान को ठीक से चिह्नित कर डाक लेकर आगे चले । लौटकर फरसे को लेना भी आवश्यक था , नहीं तो प्रधान अध्यापक के कोप का भागी बनना पड़ता , तो डाक देकर लौटते हुए हमने इस बात का ध्यान रखा और फरसे को पुनः धारण कर सकुशल लौट आए । इसके बाद कभी फरसा धारण कर चलने की स्थिति निर्मित नहीं हुई ।
अशोक सोनी
भिलाई ।