*अज्ञानी की मन गण्ड़त*
अज्ञानी की मन गण्ड़त
भावों को मन-मस्तिष्क में मथ अन्दर।नैनों में नैनाभिराम खोज ले तूं अन्दर।।
भाव-कुभाव विचार उठते मन समुन्दर उड़ते में परवाज़ पंछियों के अन्दर।।
वेदना अंतस घिरता व्यथा की अंतर्मन भंवरजाल में यूं उलझते मन के अन्दर।।
न यथार्थ लिखती हैं कवियों की कलम।पैरवी करने में जन मानस मन से अन्दर।।
सिसकती नदियां झरने पहाड़ दरकते हैं इंसानियत दम तोड़ती जा रही इंसा के अन्दर।।
सुन्दर भाव की भावना चपल चंचला निरखते भावनाओं से कुभाव ये अन्दर।।
चमन चहुं ओर उजडे हुए देखे उपवन उठते सुंदर चयन अंलकार न अन्दर।।
अद्भुत संगम यथार्थ से होते विलक्षण उकेरोगें उमंगें तब कागज पे कमलेन्दर।।
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झांसी उ•प्र•