अजी! अंदर बहुत अंदर चुभा है
ग़ज़ल
अजी! अंदर बहुत अंदर चुभा है।
तुम्हारी बातों का नश्तर चुभा है।।
नहीं नींद आती है रातों में हमको।
इन आँखों में कोई मंज़र चुभा है।।
बिछा ली याद क्या हमने तुम्हारी।
बदन में काँटों सा बिस्तर चुभा है।।
मिला इन’आम हमको दोस्ती का।
ये देखो पीठ पर ख़ंजर चुभा है।।
अनीस इन आसुओं पर तुम न जाना।
हमारी आँख में कंकर चुभा है।।
– अनीस शाह “अनीस”