अजीत जोगी राजनीति के एक युग का अंत
जोगी जी के पीछे खुद जोगी जी ही थे…
जोगी जी का अस्तित्व खुद के दम पर ही था…
नमन!!! श्रद्धांजलि!!!
छत्तीसगढ़ के पेंड्रा नाम की एक छोटी जगह से निकला एक साधारण बच्चा अगर असाधारण उपलब्धियां हासिल कर सका तो उसके पीछे उसका मस्तिष्क ही था
अजीत प्रमोद कुमार जोगी चले गए. हालांकि उनकी मृत्यु का तात्कालिक कारण बना हृदय गति का रुक जाना. लेकिन उनके मस्तिष्क ने पहले ही काम करना बंद कर दिया था. जिसे अंग्रेजी में, ‘ब्रेन डेड’ कहते हैं. अजीत जोगी को जो भी जानता है, वो समझ सकता है कि मस्तिष्क के बिना उनका कोई अस्तित्व नहीं हो सकता. बुद्धिमत्ता या बौद्धिकता उनकी ताकत रही. आजीवन रही.
छत्तीसगढ़ के पेंड्रा नाम की एक छोटी जगह से निकला एक साधारण बच्चा अगर असाधारण उपलब्धियां हासिल कर सका तो उसके पीछे उसका मस्तिष्क ही था. कल्पना कीजिए कि कभी बिना चप्पलों के स्कूल जाने वाला बच्चा कहां तक पहुंच सकता है?
जीत जोगी की असाधारण यात्रा
और अब अजीत जोगी की यात्रा देखिए. पहले मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई. फिर इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाना. फिर डेढ़ साल आईपीएस और फिर 14 साल आईएएस. फिर दो बार राज्यसभा की सदस्यता, साथ में कांग्रेस का राष्ट्रीय प्रवक्ता होना. फिर एक बार लोकसभा. दूसरी बार लोकसभा हार भी गए तो नए राज्य छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री. यह अजीत जोगी की उड़ान की कहानी है. ऊंचाई तक पहुंचने की कहानी है.
बेहद साधारण कद काठी, अति साधारण नैन नक्श और गहरा सांवला रंग लेकिन आत्मविश्वास इतना गजब का था कि एकबारगी लोग चौंक जाते थे. प्रभावित हो जाते थे. नेतृत्व का गुण इतना सहज था कि छात्र जीवन से ही नेतागिरी करते रहे. चातुर्य इतना था कि हमेशा दूर तक देखते रहे और योजना बनाते रहे. जिन लोगों ने उन्हें आईएएस अधिकारी की तरह देखा है वो आज भी याद करते हैं कि ऐसे प्रशासनिक अधिकारी कम ही होते हैं. आम तौर पर आईएएस अधिकारी ‘फील्ड पोस्टिंग’ और मंत्रालयीन कार्यों के बीच झूलते रहते हैं. लेकिन अजीत जोगी लगातार 14 बरस तक कलेक्टरी करते रहे.
साधने में पारंगत
वो दूर तक सोचते थे. यही कारण था कि वो न केवल लंबे समय तक कलेक्टर रहे बल्कि वो यह भी ‘जुगाड़’ करते रहे कि वो कहां के कलेक्टर होंगे. यह उनकी ‘योजना’ या चातुर्य ही था कि अविभाजित मध्य प्रदेश के हर उस शहर में कलेक्टर बने जहां उस समय के राजनीतिक क्षत्रप रहते थे. अफसरी करते हुए वो नेताओं को साधते रहे. विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल से लेकर अर्जुन सिंह और माधवराव सिंधिया से प्रकाश चंद्र सेठी तक सब दिग्गज उनसे सधे हुए थे. खास कर तब तक, जब तक उन्होंने राजनीति में अपने ‘दांव’ चलने शुरू नहीं किए.साधने में वो इतने पारंगत हो चुके थे कि वो राजीव गांधी को तब साध चुके थे जब वो इंडियन एयरलाइंस के पायलट थे. तब अजीत जोगी रायपुर के कलेक्टर हुआ करते थे. एयरपोर्ट पर निर्देश थे जब भी पायलट राजीव गांधी हों उन्हें सूचना दे दी जाए. वो घर से नाश्ता और चाय लेकर हवाई जहाज से पहले हाजिर होते थे. तभी तो जब राज्यसभा में जाने की बारी आई और अर्जुन सिंह के कहने से दिग्विजय सिंह उन्हें राजीव गांधी से मिलवाने ले गए तो राजीव गांधी ने कहा था, ‘आई नो दिस जेंटलमैन, ही इज फाइन.’
साधने के लिए उन्होंने हर किसी के लिए अलग फॉर्मूला अपनाया. चाहे वो सोनिया गांधी हों या फिर सीताराम केसरी. ऐसा नहीं कि सब उनसे सध गए. वो लाख कोशिशों के बावजूद नरसिंह राव को नहीं साध पाए. वरना उनकी जीवनी में केंद्रीय मंत्री का पद भी जुड़ गया होता. लेकिन वो हार नहीं मानते थे. जिस समय देश यह नहीं जानता था कि छत्तीसगढ़ नाम का राज्य कभी अस्तित्व में आएगा भी या नहीं, उस समय भी उन्होंने ठान लिया था कि वो छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री बनेंगे. माधवराव सिंधिया ने वर्ष 1998 में उनका परिचय इसी तरह से करवाया था. राज्य बना वर्ष 2000 में और वो मुख्यमंत्री बने.
तिकड़म और गलतियां
जैसा कि सुकरात ने कहा है कि उत्कृष्टता अपने आपमें कोई गुण नहीं होता. वो तो बार-बार अच्छा या सही कार्य करते रहने से पैदा होने वाली पहचान है. अजीत जोगी की उड़ान की कहानी ऐसी दिखती है मानो वो ऐसे उत्कृष्ट व्यक्ति थे जो हर बार सही निशाना लगाते रहे. लेकिन सुकरात की बात सही थी. उत्कृष्ट हो जाने का या अपने मस्तिष्क में उपजे तिकड़मों का भ्रम इतना बड़ा हो गया कि अजीत जोगी गलत फैसले लेते रहे. जिन समय वो शिखर की ओर बढ़ रहे थे उन दिनों भी उनसे गलतियां हुईं लेकिन जब ग्राफ ऊपर की ओर जा रहा हो तो गलतियों को कौन याद रखता है? उनसे गलतियां प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भी हुईं और राजनेता के रूप में भी. लेकिन दर्ज होनी शुरू हुईं जब वो राजनेता बनकर शिखर पर जा पहुंचे थे और सामने ढलान दिखने लगी थी.
छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री के रूप में वो लोकप्रिय मुख्यमंत्री के रूप में तो उभरे लेकिन एक ऐसा बड़ा वर्ग भी तैयार हो गया जिनके मन में उनकी कार्यशैली से असुरक्षा की भावना उपजी. एक तरह का डर पैदा हो गया. और इसी डर को आरएसएस-बीजेपी ने अपनी चिर-परिचित शैली में बहुत बड़ा कर दिया. सच्चाई से बड़ी अफवाह हो गई और जिसे हीरो होना चाहिए था वो विलेन दिखने लगा. और इस डर को बीजेपी उनके कांग्रेस से निकल जाने तक भुनाती रही.
वैसे ऐसा नहीं है कि अजीत जोगी एकदम बेदाग थे. उन्होंने डर तो पैदा किया ही और यह डर सामाजिक, कानून व्यवस्था के अलावा राजनीतिक भी था. उनकी राजनीतिक चालों ने पार्टी के नेताओं के मन में एक तरह की असुरक्षा भर दी.
निरंकुशता और अनैतिक सांठगांठ
अजीत जोगी ने कांग्रेस के भीतर नेतृत्व की चुनौतियों को खत्म करने के लिए अपनी ही पार्टी के उन साथियों को हाशिए पर धकेलने का षडयंत्र रचना शुरू कर दिया. एक समय ऐसा भी आया जब वो प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाने के लिए राजनीति की जगह दूसरे हथियारों का भी उपयोग करने लगे. यहां तक कि उनके सबसे बड़े राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी विद्याचरण शुक्ल के एक सहयोगी की सरेआम हत्या हो गई और इसमें उनके बेटे अमित जोगी का नाम शामिल हो गया.
दूसरी बड़ी गलती अजीत जोगी ने यह की कि कांग्रेस में अपने प्रतिद्वंद्वियों और ताकतवर जमीनी नेताओं के उभार को रोकने के लिए उन्होंने सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी, खास कर मुख्यमंत्री रमन सिंह से सांठगांठ कर ली. राजनीति में बहुत से अनकहे समझौते होते रहे हैं. लेकिन यह दोस्ती ऐसी थी कि दोनों दलों के लोग जानते थे कि अजीत जोगी का रहना रमन सिंह के लिए फायदेमंद है. कांग्रेस आलाकमान तक इसकी शिकायतें भी थीं.
वो लगभग निरंकुश तो थे ही. समय के साथ वो और उच्श्रृंखल होते गए. उन पर गंभीर आरोप लगे कि नवनियुक्त प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल को विफल साबित करने के लिए उन्होंने बस्तर के एक उपचुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी को पैसे ले-देकर मैदान से हटा दिया. इस खरीद-फरोख्त के ऑडियो टेप मीडिया में आने के बाद ही उनके बेटे अमित जोगी को पार्टी से हटाया गया और उन्हें पार्टी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा.
अशोक, अकबर और अंग्रेज
इतने मजबूर वो संभवत: पहली बार ही हुए. वरना वो जिनको अपना आदर्श मानते रहे हैं उसमें मजबूरी शब्द कहीं आता ही नहीं. एक साक्षात्कार में उनसे पूछा गया था कि वो अपना आदर्श किसे मानते हैं तो उन्होंने तीन नाम लिए थे- अशोक, अकबर और अंग्रेज. बिना अधिक विश्लेषण किए भी यह समझा जा सकता है कि तीनों में जो बात उभयनिष्ठ है, वो यह कि तीनों साम्राज्यवादी और विस्तारवादी थे. और तानाशाह न भी हों तो स्वेच्छाचारी तो थे ही. अजीत जोगी की राजनीतिक पारी भी इसी के इर्द-गिर्द घूमती रही.
वैसे उनके इर्द-गिर्द झूठ का महिमामंडन भी बहुत था. खास कर जब अपने राजनीतिक कद या वर्चस्व का बखान करना हो. राष्ट्रीय प्रवक्ता रहते हुए भी वो पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में छत्तीसगढ़ में अपने राजनीतिक रसूख को इस तरह बयान करते थे कि आश्चर्य होता था.
सच बात यह थी कि मुख्यमंत्री बनने से पहले छत्तीसगढ़ में उनकी कोई राजनीतिक जमीन नहीं थी. जब वो मुख्यमंत्री चुने लिए गए तो एक पत्रकार ने आश्चर्य से उनसे पूछा, ‘लेकिन आपके साथ तो कुल दो विधायक हैं.’ उन्होंने ठहाका लगाया और कहा, ‘दो नहीं डेढ़. दूसरा जो है उसका एक पांव कहीं और है.’
झूठ पर खड़ा रसूख
झूठ का ही प्रताप था कि पूरा छत्तीसगढ़ जानता था कि वो आदिवासी नहीं हैं, लेकिन वो आजीवन आदिवासी बने रहे. अदालतों ने तकनीकी आधार पर उनको बरी कर दिया. लेकिन इस बार वो बुरी तरह फंस गए थे. बीजेपी के मुख्यमंत्री से उनकी दोस्ती की एक ठोस वजह जाति का प्रमाण पत्र भी था. वो एक दूसरे की पीठ खुजा रहे थे. ‘तुम मुझे साथ दो, मैं तुम्हारा फैसला रोके रखूंगा’ की नीति पर रमन सिंह ने अजीत जोगी का भरपूर दोहन किया.
कम से कम उनके जीते जी कोई ठोस फैसला नहीं आया जिससे यह साबित हो सके कि उनके आदिवासी होने का प्रमाणपत्र झूठा है. एक ऐसा सच पर्दे में है, जिसके बारे में हर कोई जानता है. बरसों तक वो कांग्रेस के बड़े नेताओं को इस भ्रम में रखते रहे कि उनके बिना छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है. दिल्ली में संभवत: राहुल गांधी पहले नेता रहे जिन्होंने यह जोखिम उठाना स्वीकार किया कि अजीत जोगी के बिना भी राज्य में कांग्रेस के भविष्य की तलाश हो सकती है.
कांग्रेस ने तो अपना भविष्य संभाल लिया. लेकिन अपनी एक नई पार्टी बनाने के बाद जिस करिश्मे का छद्म उन्होंने बना रखा था वो टूट गया. साथ में भ्रम टूटा उनके अभिन्न मित्र बन गए रमन सिंह का, भारतीय जनता पार्टी का, आरएसएस का और दिल्ली के कई नामधारी पत्रकारों का.
लेकिन यह कहना गलत होगा कि अजीत जोगी को कभी इसे लेकर कोई भ्रम था. अगर होता तो वो मायावती के साथ चुनाव न लड़ते. मायावती से पहले नीतीश कुमार पर डोरे न डालते और कांग्रेस में वापसी की कोशिश न करते.
अथक प्रयास
कोशिश एक ऐसी चीज थी, जो राजनीति के छात्रों को अजीत जोगी के जीवन से सीखनी चाहिए. उनके मस्तिष्क की उर्वरता की सबसे बड़ी ताकत थी उनका जुझारूपन और कोशिश करते रहने की उनकी जिद. कोई नकारात्मक परिणाम उन्हें निराश नहीं करती थी और यही एक बात थी जिससे उनके विरोधी भी ईर्ष्या करते रहे हैं. ईर्ष्या तो खैर उनकी जीजिविषा से भी होती है. वर्ष 2004 में जो सड़क दुर्घटना उनके साथ घटी उसके बाद किसी ने नहीं सोचा था कि वो बचेंगे भी. लोग सोचते थे कि अगर बचेंगे भी तो राजनीति नहीं कर पाएंगे. राजनीति कर भी पाएंगे तो लंबी पारी नहीं खेल पाएंगे. लंबी पारी खेलेंगे भी तो हाशिए पर पड़े होंगे. लेकिन हाशिए पर रहना अजीत जोगी तो कभी मंजूर नहीं हुआ.
इसमें कोई संदेह नहीं कि वो अपने हमउम्र लोगों में सबसे विचारवान, ऊर्जावान और धारदार नेताओं में से एक थे. लेकिन उनके मस्तिष्क ने ही उनकी राजनीतिक के पन्ने उलट दिए.
कहते हैं कि इतिहास निर्मम होता है. इस सवाल का जवाब अभी नहीं दिया जा सकता कि इतिहास के पन्नों पर अजीत जोगी कैसे दर्ज किए जाएंगे क्योंकि उन्होंने अपने जीते जी सारे सफेद पन्नों को स्याह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. चाहे वो बीजेपी के विधायकों को तोड़कर कांग्रेस में शामिल करने का मामला हो या चुनाव हारने के बाद जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की कोशिशों का. निश्चित तौर पर वो एक ऐसे राजनेता थे जो अपने ही रचे चक्रव्यूहों में एक के बाद एक फंसते रहे.