अजब ये प्रीत है.
धरती प्यासी है मिलन को अपने अंबर से,
अंबर भी बेकरार है प्रणय मिलन प्रेयसी से.
कैसी प्रीत है सदियों से जो यूँ ही,
तरसते हैं,तड़पते हैं मिलने एक दूजे को.
भ्रम होता है कि दूर क्षितिज में मिले हैं,
जाकर देखा तो क्षितिज दूर है.
जन्म-जन्मान्तर का विछोह है ये तो,
क्या इतनी सरलता से खत्म होगा.
लगता है आज क़यामत आकर रहेगी,
आज व्योम धरा पर आने को है.
उमडते-घुमडते मेघ इशारा तो कर रहे हैं,
चमकती कड़कडाती विजलियां बाराती हैं,
बादलों पर सवार हो वर मिलन को तत्पर,
हरी-भरी लताओं,रंग बिरंगी पुष्पो से,
सजती लजाती सौंदर्य बिखेरती धरा.
अनुपम और निराला विवाह है आज तो,
क्या परिणाम होगा इस मिलन का,
रुक गयी बारात वीरान हुई धरा.
क्षितिज पर मिलन छद्म है एक धोखा है.
पत्तों पर गिरी ओस की बूँदें बता रही हैं,
रात भर सोयी नहीं,जी भर रोयी है धरा.
आसमान भी कहाँ सोया,गरजकर रोया है.
आकाश झुक कर मिल सकता नहीं धरा से,
अपनी शालीनता धरा भी कहाँ छोड सकती है.
कैसी ये प्रीत,कैसा ये समर्पण.
बिन मिले सब कुछ एक-दूजे को समर्पण.
©® आरती लोहनी….