अजब जीवन की बिडंबना है….
जानती हूँ, नसीब में मेरे,
जुगनू भर की चमक नहीं है।
तमस मेरे गम का अमा-निशा से भी अधिक घना है।
कब देखी मैंने हरियाली,
कब आयी घर खुशहाली,
सब सावन रीते बीते मेरे,
रीते होली और दीवाली !
रचकर खुशियों की फंतासी,
बस बाबरे मन को भटकाया।
उन्मुक्त उड़ान भर नभ को छूना महज इक कोरी
कल्पना है।
अबीर-गुलाल उड़ाए न मैंने,
फुलझड़ियाँ भी नहीं जलाईं,
चिन दिया मन-आँगन अपना,
खिड़की-साँकल नहीं बनाईं।
हर दिन सूरज उगता नभ में,
किरण-लास न मुझ तक आए।
खुशी की एक लहर का गोया मुझ तक आना सख्त मना है।
जीवन-जंग में सदा ही हारे,
ढले अश्क बन अरमां सारे,
गम-शिशु सीने से चिपकाए,
जीते रहे बस मन को मारे।
सावन की बदली-सा जीवन,
झर-झर बरसना, मिट जाना।
विस्तृत नभ का कोई कोना मेरे लिए नहीं बना है।
अधूरे रहे सब मन-मंसूबे,
ख्वाब सभी अश्कों में डूबे,
कोई यकीं करे भी तो कैसे,
घटे जीवन में विकट अजूबे।
चाह सुखों की खूब दौड़ाए,
टोली गमों की रौब जमाए।
आस न मिटती, प्यास न मिटती अजब जीवन की विडंबना है।
—© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)