अच्छा लगता है!
अच्छा लगता है!
लिखकर कुछ सच्चा लगता है।
खुद को जिंदा पाती हूँ, मन से और मुस्काती हूँ।
गीत फ़िर गुनगुनाती हूँ, राह पर बढ़ती जाती हूँ।।
शायरी नहीं कल्पना है, शायद है मन का अहम्।
नहीं!!! रोक खुद को, मर जाएगी इक दिन।।
शौक जुनून बनता जा रहा है,
मन बस धक्के खा रहा है।
क्या यह प्रतिकार मांगेगा?
क्या यह अधिकार मांगेगा?
क्या दुनिया, फिर से बनेगी?
क्या मन को कभी शांति मिलेगी?
राम ने जिसे ठुकराया है,
किसने फिर उसको अपनाया है?
पश्चाताप में जलती है,
रुह हरदम मचलती है।।
बगिया में फूल खिलता है,
मन मैला-मैला फिरता है।
न अब सवेरा होता है,
चहुंओर अंधेरा होता है।
मंज़िल का नहीं पता हमको,
थोड़े में गुजारा होता है।
मां बाप मेरे भी हैं घर पर,
लिखने से न बसेरा होता है।
सोचा करती हूं छोड़ दूँ लिखना,
फ़िर! सहसा-सा लगता है।
मरने से क्या हल निकलेगा?
जीवन है! सब चलता है!!!
– ‘कीर्ति’