‘अचानक’
घर में ढोलक की थाप पर मंगल गान अपनी छटा बिखेरे थे..फूफा जी और मम्मी एक दूसरे की खिंचाई करते-करते डांस में खोये थे। रंग में भंग तब पड़ा जब अचानक मेरा फ़ोन बजा.. चीफ मैनेजर का फोन था..
“संकल्प मैं जानता हूॅं तुम व्यस्त होगे, पर तुम्हें अर्जेंट पेपर्स लेकर अयोध्या जाना पड़ेगा, मैं गाड़ी भेज रहा हूॅं, कल लौट आना, और हाॅं सब कुछ सीक्रेट रखना”
मेरे साथ-साथ और सब भी उदास हो गये..”क्या दादा आज भी ..” कहकर मेरी छोटी बहन का चेहरा लटक गया।
अंदर-अंदर मैं भी चिढ़ गया था पर..ये नौकरी भी ना.. मैं भुनभुनाता हुआ तैयारी में लग गया..
मुझे अपनी होने वाली जीवन-संगिनी की याद आने लगी, कल हम लोग विवाह के पवित्र बंधन में बॅंधने वाले हैं.. सोच के उसका मासूम सा चेहरा और भोली सी हॅंसी याद आ गई। पता ही नहीं चला कि उसको सोचते-सोचते..कब मैं गाड़ी में बैठा-बैठा अयोध्या पहुॅंच गया। मीटिंग खत्म होते-होते रात ज्यादा हो गई, मैं थका भी था, खुश भी कि सब निपट गया..ऐसे सोया कि सुबह ऑंख खुली.. मैं उसकी बातों को याद करते हुए घर पहुॅंच गया..पर ये क्या? पूरे घर में इतना सन्नाटा! मैं स्तब्ध..
“माॅं.. कहाॅं हो सब लोग?”
“भइया..” कहकर मेरी छोटी बहन दौड़ कर मेरे पास आई और कसकर मुझसे चिपक कर रोने लगी..
मैं अवाक! एक रात में ऐसा क्या हो गया?
“माॅं कहाॅं है नीरू?”
“भइया..वो..वो..”थरथराती सी नीरू बोल नहीं पाई..
तबतक दादी आ गयीं..”क्या हुआ दादी? सब कहाॅं हैं?”
“बेटा .. सुलभा से तुम्हारा विवाह नहीं हो सकता..”
“पर क्यों दादी” मैंने लगभग चीखते हुए पूछा!
“कल उसके घर में डकैती पड़ गई है, और गुंडों ने उसकी इज्जत लूट ली, उसके माॅं-बाप के सामने..और इतनी पिटाई की कि दोनों के प्राण पखेरू हो गये”
कहकर दादी काॅंपने लगी..
“नहीं.. नहीं दादी ऐसा नहीं हो सकता”
मैं फफक कर रो पड़ा.. मेरे सामने सुलभा का भोला सा चेहरा घूम गया.. इतना सुंदर चेहरा कि मैं अपने भाग्य पर इठलाता फिर रहा था..
“सुलभा..मेरी सुलभा कहाॅं है दादी?”
“अब उसके बारे में सोचना छोड़ दे..अब वो तेरे लायक नहीं रही..”दादी ने कड़े शब्दों में कहा।
“कैसी बात कर रही हैं दादी आप? उस पर विपत्ति आई है, वो उस घर में अकेले.. आप लोगों में से कोई वहाॅं गया नहीं”?
मैंने बहुत गुस्से में पूछा और तीर की तरह घर से निकल गया। मेरे दिमाग में सुलभा का घर.. खिलखिलाती हुई माॅं.. सकुचाते हुए बाबूजी का चेहरा घूम रहा था।
घर के दरवाजे पर पहुॅंचते ही मन हाहाकार कर उठा.. जिस घर में बारात आनी थी… दो-दो शव पड़े थे.. चेहरों पर दर्द ही दर्द!
उफ! मैं काॅंपते कदमों से भीतर घुसा..
“माॅं..आप यहाॅं? मैं चीख-चीख कर रोने लगा..ये क्या हो गया माॅं..”
मैं अपनी माॅं को वहाॅं देखकर खुद पर काबू नहीं रख पाया और उनसे लिपट कर रो पड़ा।
“संकल्प हिम्मत से काम ले, जा सुलभा को सॅंभाल!”
मैं सहसा अपने दु:ख से बाहर आया..
“कहाॅं है वो?”
माॅं ने हाथ से इशारा किया.. बिस्तर पर निढाल सी ऑंखें मूॅंदें.. ऑंसू सूख कर चिपके दिख रहे थे..उफ! मेरा कलेजा मुॅंह को आ रहा था..
“माॅं.. पापा, चाचा को बुलवा लीजिए..इन दोनों के अंतिम संस्कार के लिए और सुलभा को घर ले चलिए..” मैंने निढाल होते हुए कहा..
“तुम्हारी दादी ने शादी से इंकार कर दिया है बेटा” माॅं ने बहुत धीरे से कहा..
“और आप?आप क्या सोचती हैं माॅं? इसकी क्या गलती है? मैं इसे यूॅं ही अकेला छोड़ दूॅं? नहीं माॅं, सुलभा अब मेरी है, इसको घर ले चलिए..इसकी तबियत ठीक होते ही हमारी शादी होगी माॅं”
मैं भावावेश में रोने लगा।
“हाॅं बेटा.. हम इसे घर ले चलेंगे.. इसकी कोई गलती नहीं, मुझे तुम पर गर्व है बेटा!”
कहकर माॅं ने मुझे गले से लगा लिया..
मैंने सुलभा के माथे पर चुंबन अंकित किया, उसकी ऑंखों में अपने लिए प्यार और सम्मान का भाव देखकर भाव-विह्वल हो उठा, माॅं से उसका ख़्याल रखने को कहकर आगे की तैयारियों में लग गया।
समाप्त
स्वरचित
रश्मि संजय श्रीवास्तव
रश्मि लहर
लखनऊ