अगर “स्टैच्यू” कह के रोक लेते समय को ……..
अगर “स्टैच्यू” कह के रोक लेते समय को,
तो आज तन यहां और मन वहाँ दौड़ता ना होता
यूँ ही – यहीं बैठे बैठे कभी कभी
अपने ही पुश्तैनी घर के
दालान पर पसरता है ये मन
जहाँ दादी के हुक्के की गुड़गुड़
मीठे दो रस्से तम्बाकू की मीठी महक
मेरे अंदर फ़ैल जाती है
और फिर बचपन के जैसे ही
चुपके से एक दो कश लगाने को करता है मन
पर आज अपनी डनहिल सुलगा लेता हूँ
मन है की – पल में फिर भाग लेता है
तो कभी कॉलेज की सीढ़ियों पर
कभी लाइब्रेरी में खामोशी से बैठ
हर मौजूद लोगों की
साँसों की लय को सुनता है
फिर कभी मोहल्ले की नानी
रसोई से आती नारियल के
लड्डू की महक
महसूस करता है ये मन
यहाँ बैठ कर कभी देखता हूँ
पुरानी तस्वीरों को
उन्हीं लम्हों मे ये मन
अटक कर रह जाता है
ये मन फिर सोचता है
की काश फिर एक बार ही सही
फिर जी भर के जी लेते
उस बेफिक्र सी जिंदगी
वापस मोड़ लेते घड़ी की सुईओं को
और “स्टैच्यू” कह के रोक लेते समय को
तो आज तन यहां और मन वहाँ दौड़ता ना होता