अगर दर्द का कोई रंग होता
अगर दर्द का कोई रंग होता
दर्द का भी कोई रूप होता
कोई आकार होता
तो एक बार कोशिश ज़रूर करती
की इस दर्द को जिन्न की तरह
एक बोतल में क़ैद कर दूँ
की ये दर्द कहीं भाग न पाए ,
या फिर कोई मुकदमा कर दूँ
की ये दर्द बरसों सलाखों के पीछे सड़ता रहे |
अक्सर मैं इस दर्द से निजात पाने की हज़ार
तरकीबें सोचती हूँ
पर अंत में ये कुछ यूँ हावी होता है
की दूर दूर तक मानों सिर्फ़ रेत ही रेत हो
और उस मरू का मैं निरीह प्राणी |
काश की दर्द वाकई तुम मुझे दिख सकते
तो मैं शायद तुमसे छुपने की एक नाक़ाम कोशिश कर भी लेती |
– द्वारा नेहा ‘आज़ाद’