अक्स ख़ुदा का
ऐ “ख़ुदा” चल आज मैं तेरा ही “अक्स” तुझें “आईने” में दिखाता हूँ,
तू “बात” इंसानी कर्म “पाप-पुण्य” की जो करता है,
उनकी “क़िस्मत” मुक़द्दर का लेखा बाँटने जो किया “फ़रेब” छल से बताता हूँ,
कहीं तूने “घी घणा” तो कहीं तूने किसी को “धोधा चणा” भी नहीं दिया,
किसी के “मुक़दस” में तूने दी “बहारें” तो किसी को “वीराना” दिया है,
कहीं तूने दिये “हँसी के क़हक़हे” कहीं होठों से “मुस्कान” तक ली छीन,
अब ऐ “ख़ुदा” तू ख़ुद ही कर ले तेरे “छल” के “पाप-पुण्य” का हिसाब,
ग़र तू भी ये “छल” तो “ख़ुदा” नहीं इंसानी “स्वरूप” है,
ऐ “ख़ुदा” कौन करेगा तेरी इस “फ़ितरत” का “लेखा-ज़ोखा”
ऐ “ख़ुदा” चल आज मैं तेरा ही “अक्स” तुझें “आईने” में दिखाता हूँ।।
मुकेश पाटोदिया”सुर”