अक्सर सोचतीं हुँ………
अक्सर सोचती हूँ,….की,..कैसे! वो
मुंह को निवाले का एहसान जताकर ,
उन आंखों से खता कर,
इस दिल पर राज जमाकर,
फिर एक झटके में ही…
उसे नाराज कर जाते हैं…!!
जिन बालों में उँगलियों को उसने
प्यार से फेरा हो कभी !
नाज़ुक होंठों को लबों से उसने
जी भरकर चूमा हो कभी !
फिर कैसे उसे ही सरेआम …
नीलाम कर पाते हैं …!!
वो जश्न-ए-इश्क़ के मेले में
खूब झूमकर ….!
हाथों में अपना हाथ दिए
वो सारा शहर घूमकर …!
फ़िर कैसे वो उन पलों को
हुई एक भूल का नाम दे जातें हैं ..!!
कहते हैं जो दिल में बसा हो
वो परिशुद्ध प्रेम है …..
फिर क्यूं ! लोग उसे जिस्मों का खेल समझ ,
यू ही बदनाम कर जाते हैं ……!!
✍ palak shreya