अकेला तू शून्य
अकेला तू शून्य
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शून्य से उत्पत्ति, शून्य में ही समाप्ति
शून्य की हैं व्याप्ति, शून्य से ही प्राप्ति।। धृ।।
हूं मैं अकेला, एक अभिन्न शून्य
आदि हैं ना अंत, ऐसा मैं विभिन्न।।1।।
शून्य के अंदर ही, लाखों शून्य समाएं
एक को भी निकालो,सारे खाली हो जाए।।2।।
पीछे पड़े हैं सारे, एक शून्य के ही पीछे
आगे चलाए जो शून्य, बाकी एक के पीछे।।3।।
कर्तृत्व दिखाएं एक जो,उसको कोई न पूछे
अकेला मैं एक शून्य, सारे मुझको ही पूछे।।4।।
कहता हूं आज भी मैं, अकेला मैं एक शून्य
“मानस” कहे मुझसे दूजा न कोई, सारे दे मुझे प्राधान्य।।5।।
शून्य से उत्पत्ति, शून्य में ही समाप्ति
शून्य की हैं व्याप्ति, शून्य से ही प्राप्ति।। धृ।।
मंदार गांगल “मानस”