अकेलापन
भीड़ में खड़े होकर भी खुद को, अकेला पाने लगे हम
भीगी पलकें हमारी मगर ,
सब को देख कर मुस्कुराने लगे हम ।
बंद होते गए हर दरवाजे जिंदगी के हमारे लिए ,
न जाने क्यों हम इतने बेबस और मजबूर होते गए
आशा की हर डोर अब टूटने लगी है ,
फ़िर भी आस्था के दिए हम जलाते रहे ।
उजाले की एक किरण को हम ऐसे तरसे, जैसे मौत जिंदगी की एक सांस को तरसे ।
नैनो के नीर भी बहकर अब सूख गए हैं ,
अब तो केवल मायूसी के बादल बरसने को रह गए हैं ।
सारे जहां ने दिवाली की खुशियां मनायी,
हम तो खाली दिए की तरह जलकर बुझ गए हैं।
यह जिंदगी भी बेमानी सी हो गई है,
न जाने क्यों हर खुशी कोरी कल्पना बनकर रह गई है।
सब की मौजूदगी में भी अकेली हो गई हूं मैं,
कि एक गुमनाम तस्वीर बनकर कर रह गई हूं मैं।।