अंधेरे में कैद हूँ.. (कोरोना )
तप रहा हूँ मैं अलग
पड़ा हूँ एक कोने में
सुन रहा हूँ शब्द सबके
लिपटे भय के बिछौने में..
कंप रही है आत्मा
और कंप रहा शरीर क्यों
है न कोई पास मेरे
मैं अंधेरे में कैद हूँ ….
प्राण भी अधीर हैं ,
स्वास भी विदीर्ण है
निकट हूँ मृत्यु के मैं अब
स्तिथि मेरी अब जीर्ण है
नेत्रों में अश्रुओं की निम्नगा
हो रही है छटपटाहट क्यो.?
एकांत मूक चारदीवारी में
मैं अंधेरे में कैद हूँ …
लड़ रहा हूँ खुद से मैं
भ्रमित मन को समझा रहा,
क्यो हो रहा मैं आत्मविस्मृत
मैं ये समझ न पा रहा ,
अब कुछ दिन शेष हैं
फिर नया सवेरा होगा
हटेंगे बादल भय के…
मैं अंधेरे से मुक्त होऊँगा…
©®- अमित नैथाणी ‘मिट्ठू’