अंधेरे का रिसाव
सदियों से रिसता आया है अंधेरा ,
जब जब कमज़ोर पडी हैं ,
मानवता की दीवारें …
जीवन रूपी कमरे में ,
ठीक उसी तरह जैसे …
किसी पुराने निर्माण की ,
जर्जर दीवारें ….
कितनी बार पोतोगे कलई ,
हर रिसाव के बाद ,
फिर फिर और फिर ,
उभर आयेंगे निशान ….
लगने लगा है आज कल जैसे ,
जाम हो गये हैं
सत्ता के लालच और स्वार्थ से ,
खिड़की और दरवाजे , ,
ना जाने कब और ,
कौन इन्हें खोल पायेगा …
अभी तो इंसानियत के फर्श से ,
अध्यात्मिकता के ऊँचाई की तरफ ,
बढ़ता जा रहा है , अंधेरे का स्तर ….
हर बार ,
किसी स्त्री का अपमान कर ,
दोषी को आजाद क़र ,
बेगुनाह को सजा दे क़र और ,
पवित्रता का दमन कर ,
हिला क़र रख देता है ,
हर सच्चे इंसान को ,
सियासी अंधेरे का ,
कर्ण भेदी अट्टहास …
जम चुकी है काई विवेक पर ,
हर क्षण डूब कर मर रहे हैं , अनगिनत सपने ,
प्यारे दोस्तो , नहीं छोडना जन्मना
नए सपनों को लगातार ,,
क्योंकि जब दमन करना असंभव हो ,
हो जाता है और भी जरूरी ,
सृजन को संभव रखना …..
क्षमा उर्मिला