अंधेरा
अंधेरा …
अंधेरा ही तो था
जब नन्ही हथेलियों से
दरवाजे को धकेला था उसने
माॅं के सीने से लग कर सोने के लिए
चुभ गई थी कुछ रक्त लगी कांच की चूड़ियों के टुकड़े
एक लोटा लुढ़कता हुआ आया था
जिस नन्हें पांव के नीचे
चिंख अंदर ही घुट कर रह गई थी
ठोढ़ी ! जरा और नीचे झुक गई थी
अंधेरे में जाने कब तक
रिस्ते रक्त और दर्द में बैठी रही थी वो
माटी के नरम दीवाल से लग कर
सुबह खुद को बिस्तर पे देखा
माॅं को आँखें लाल और पीठ पे
काले निशान लिए
घर के काम को करते देखा
उस अंधेरे ने पीछा ही नहीं छोड़ा
हमेशा लिपटा रहा उसकी चोटी से
उस दिन भी तो अंधेरा ही था
जब लालटेन का शीशा चटक गया था
उसकी पेंसिल के चोट से
ढूंढ़ रही थी किसी सधे हुए हाॅंथ को
किसी के गिर जाने से डर गई थी वो
अपनी ही भूल समझ खुद को
बीसियों बार कोसा था उसने
और पेंसिल को दी थी गाली
करमजली पेंसिल के कारण ही
अंधेरा नज़र के इर्द गिर्द है पसरा हुआ
जाने कौन अंधेरे में थोड़ा और लंगड़ा हुआ
तभी एक फटी हुई फ्राक गिरी थी उस पर
जिसके गंध को भली प्रकार पहचानती थी वो
उम्र में बड़ी … पर उसकी तो सखी थी वो
उसी के घर में काम करने निश दिन आती थी वो
उसकी सिसकियों को थामे जब चली थी वो
बेसुध ! कमरे के जमीन पड़ परी मिली थी वो
उस रात की भी सुबह तो हुई
पर अंधेरा और पसर गया
नन्हीं हथेलियों और हलक के बीच
साथ छूट गया था सखी का
तीनों जानते रहे ताउम्र उस अंधेरे को
और छिपते रहे एक दूसरे से
ऐसे ही न जाने कितनी और अंधेरी रात
अपने कजरिया टांक गयी
उसके बाल मन दिमाग में
जवानी के अपने ही अंधेरे मिले
हर उम्र में उसे अंधेरे ही अंधेरे मिले
अब वो अँधेरे रे से भाग कर
अँधेरे में ही छुपती है
हर वक़्त उजाले को पुकारती है
अंधेरा पीछा नहीं छोड़ता
उजाला उस से भागता है
~ सिद्धार्थ