अंधविश्वास नौ दो ग्यारह
स्मृति के पति का चार भाईयों का परिवार था सबसे छोटे भाई थोड़ा बिगड़ गये थे कई – कई दिन घर – गाँव से गायब रहते…इस बार होली मनाने स्मृति आसनसोल से मयपरिवार गाँव आई थी हर बार की तरह इस बार भी यही हुआ घर पर छोटे देवर नही थे , पूछने पर चाची ने उनकी करतूतों पर पर्दा डालते बहुत व्यस्त हैं कहते हुए सफाई दे डाली ।
दूसरे दिन देवर को गाँव में पैर रखते ही खबर मिल गई कि से भईया आ गए हैं…बस उनके अंदर का कलाकार जग गया ( गाँव की रामलीला में परशुराम का किरदार निभाते थे और बहुत खड़ाऊँ तोड़ा करते थे ) किसी तरह गिरते – पड़ते घर में दाखिल हुये और स्मृति से आँगन में ही मुलाकात हो गई बस फिर क्या था लगे धड़ाम – धड़ाम गिरने तभी देवरानी बोल पड़ी …अरे ! इनको तो देवी आ गई हैं…इतना सुनना था कि स्मृति का पारा सातवें आसमान पर गुस्से से तमतमाती स्मृति ने एक जोर का तमाचा जड़ दिया देवर के गाल पर ” तड़ाक ” ( स्मृति का तमाचा जिसको भी लगा वो सुधर गया ) और तुरंत तमाचे की प्रतिक्रिया के रुप में देवर के मुहँ से निकाला ” आज रात तुम्हारे पुत्र के लिए बहुत भारी है ” चाची बोलीं की ये थोड़ी बोल रहे हैं ये तो देवी बोल रहीं हैं और देवी का कहा झूठ नही होता ।
स्मृति का माथा ठनका कि कहीं अपनी बात को सही साबित करने के लिए ये मेरे बेटे को कुछ कर ना दे… स्मृति पूरी रात मेरे छोटे भाई को ( उस वक्त वो तीन साल का था ) गोद में लेकर बैठी रहीं पलक नही झपकाया उसने सुबह हुयी स्मृति देवर के सामने बेटे को लेकर खड़ी थीं ये कहते हुये की ” क्या हुआ तुम्हारी देवी कुछ कर नही पायीं ? ” कोई जबाब नही था उनके पास स्मृति आत्मविश्वास से भरी वहीं खड़ी थीं और अंधविश्वास दूर खड़ा स्मृति को आश्चर्य से देख रहा था ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा )