अंत शेष
मैं था एक व्यक्ति विशेष
मेरे साथी थे कई अनेक ,
कुछ साथ चले कुछ छूट गए
कुछ आते आते रूठ गए ।
थी मेरी सम्पदा अपार
सुख साधन की थी भरमार ,
पर जाना था भवसागर पार
तब साथ न कोई आर पार ।
भौतिक वैभव की मादकता
जनती मानव में खल पटुता ,
वह सत्य ज्ञान की साधकता
पोषित जिससे है मानवता ।
करुणा का दीन से जब हुआ सामना
तब मिटी ह्रदय की कलुषित भावना ,
मिट जाए मन की जब सब कामना
समझो सफल हुई सकल साधना ।
उस सेवा से क्या था सरोकार
जो अहम तुष्टि का था विकार ,
गर कभी हुआ कोई उपकार
तो कहीं छुपा था अहंकार ।
फिर रही न कोई भौतिकता
सिर्फ साथ चली मेरी नैतिकता ,
किस काम की कोरी भावुकता
जब अटल नहीं कोई टिक सकता ।
जब छूटा व्यक्ति विशेष का भेष
तज कर माया और राग द्वेष ,
मेरे विचार मेरा व्योहार
बस वही रहा मेरा अंत शेष ।
अंत शेष भी हो गया विलीन
जब हुआ जीव शिवत्व लीन
साथ गये सब पाप पुण्य
अंत शेष सिर्फ एक शून्य ।