#अंतिम प्रश्न !
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★ #अन्तिम प्रश्न ! ★
सिंध का सपूत है
माँ भारती का ताज है
दो के संग दो शून्य लगाने वाला
कोरा मार्गदर्शक आज है
लोकलाज सब लुट गई
स्तब्ध लोकराज है
यज्ञ हवन निष्फल हुए
तप का ताप सब पिघल गया
कांधे बैठा लाडला
सिर चढ़ने को मचल गया
गुणों का ग्राहक अब कोई नहीं
नज़रों का रंग बदल बदल गया
राह जो उल्टी चल निकले हैं
कब कहां पहुँच पाएंगे
अंधों को दिखाएंगे सपने
बहरों को गीत सुनाएंगे
बबूल के पेड़ उगाने वाले
आम कहाँ से खाएंगे
बिलबिला रहा जो चींटों के बीच
बिन फूटा पाप का घड़ा
तेरा पाँव उसके पूजना सिर झुकाना
याद है ज़रा-ज़रा
मानवद्रोही नारकी पर चादर चढ़ाना
अब शौक है नया-नया
सत्तर बरसों की सीख यही है
हम न कभी कुछ सीखेंगे
दासता की अमरबेल फिर
आधी रात को सींचेंगे
जाति पूछ के तिलक करेंगे
सूरज के आगे अंखियाँ मीचेंगे
द्वारिकाधीश कृष्ण के लाल सुन
तेरा न कुछ अपराध है
तड़पे तरसे तू फिर तुझे पूजेंगे
जन-जन के मन में साध है
विवादित ढांचा नहीं था राम का घर
क्या अब तेरे मन विषाद है !
२७-९-२०१९
९४६६०-१७३१२
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)