अंतिम पड़ाव
हो बचपन-यौवन या समृद्ध-वृद्ध, सब समय के चक्र का हिस्सा है।
ये पर्वत घाटी या हरी-भरी थाती, सब पृथ्वी के वक्र का किस्सा है।
शरद चाॅंदनी में वृक्षों से हर पत्ता, पलक झपकते ही झरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
विचारों से ही बुद्धि की शुद्धि हो, हर शंका का निवारण निश्चित है।
यही है सृष्टि का पुराना नियम, जन्मे हर जीव को मरण निश्चित है।
सत्य जानते ही मानव हृदय भी, मृत्यु के विचार से उबरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
समर्पण, सद्भाव व सहभागिता, इनका प्राणी तनिक न भान करे।
पैसा, पद व प्रतिष्ठा सब नश्वर हैं, बन्दे तू किस बात का मान करे?
सतत दया भाव के जागने से, एक अभिमानी चरित्र मरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
कभी तो जोश में बहके इस दिल ने, कई मौकों पर धोखे खाए हैं।
पाप, संताप, व्यथा व मिलाप जैसे, असंख्य भाव इसमें समाए हैं।
अपने दिल का ऐसा हाल हुआ, ये तो धड़कने से भी डरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
पहले तो इस दिल से भाव निकले, फिर उन भावों से ताव निकले।
ताव ने अलगाव का इशारा दिया, हर इशारे से भी प्रस्ताव निकले।
ख़ाली घर भी दिल बहलाते हुए, हर ख़ाली कोने को भरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
घर सब लोगों को साथ रखता, लोगों से ही घर-परिवार बनता है।
अधिकार इस जीवन को मिले, जीवन है तभी अधिकार बनता है।
कल बेसुरा लगता हर साज़, आज ख्यालों में नीचे उतरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
समुद्र भी पूरी मौज में बहता, उसकी लहरों में जब रवानी होती है।
प्राणी भी ऊॅंचे गगन में उड़ता, उसकी रगों में जब जवानी होती है।
पहले तो कहीं रुकता नहीं था, आज हर स्थान पर ठहरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
यौवन की कलियाॅं खिलते ही, प्रेम प्रसंग में ज्वालामुखी फूट गया।
प्रेम में भाव के विफल होते ही, यादों का झूठा दर्पण भी टूट गया।
उन टुकड़ों में ख़ुद को ढूॅंढ़ते हुए, ये शीशे के आगे सॅंवरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
पहले तो बेधड़क आगे बढ़ता गया, अंजाम की चिंता की ही नहीं।
प्राणी केवल परीक्षण करता गया, परिणाम की चिंता की ही नहीं।
अब हालातों से विचलित मन, उन पुरानी बातों पे विचरने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।
अब तो उम्र बुढ़ापे की ओर बढ़ी, जिसमें पश्चाताप ही शेष बचेगा।
बातें, वादे, इरादे सभी निकलेंगे, बस कर्म-मर्म ही अवशेष बचेगा।
होनी-अनहोनी से जुड़ी, असंख्य बातों का सैलाब उमड़ने लगा है।
अंतिम पड़ाव पे खड़े जीवन का, लौट जाने को मन करने लगा है।