अंतर्मन
अन्तर्मन
अपने अन्तर्मन की सुनकर करती हूँ सब काम
मुझ पर कोई बंधन नहीं पर मिलता नहीं आराम।
मिलता नहीं आराम दोष किसी पर न डालूँ
खुद ही स्वयं को नित नये झँझटों में डालूँ।
झंझटों में डाला तो सुलझाना भी पड़ेगा
क्यों करती हो इतना ,ये सुनना भी पड़ेगा।
सुनना भी पड़ेगा क्योंकि ज्यादा काम हो जाते
सहायक कोई नहीं बस यूँही सब सुना जाते।
जब जब सुनती अन्तर्मन की किस्सा यही हो जाता
कविता की पंक्तियाँ लिखने को रात दिन हो जाता।
रात दिन बस यूँही गृहस्थी की चक्की चलती
मैं बेचारी किनारे बैठी सोच में डूबी रहती।
सोच में डूबी करती रहती यही विचार
अपने मन की करने को मिलेंगें कब पल चार।
मिले पल चार सुबह -सुबह ही दोस्तो
यही पंक्तियाँ अंतर्मन की आवाज दोस्तो।
देकर यह आवाज करती हूँ मन को डिब्बी में बंद
मन को सुनने कल सुबह दौबारा मिलेंगें पल चंद।
नीरजा शर्मा