अंतर्बोध
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मैं और तुम
रात और दिन की विपरितताओं की तरह
मिले,दुकान पर
फूलों की दुकान पर।
तुम्हें चाहिए था जयमाल।
तुम्हारे दोस्त के लिए।
वह विजयी था।
मुझे चाहिए था श्रद्धा-सुमन।
मेरे दोस्त के लिए।
वह पराजित हो गया था
जीवन से।
तुम डरे।
सिकोड़कर भौंहें देखा मुझे।
वहाँ शंका थी, संशय और भय।
मैं हर्षित हुआ
विजय भी होता है
सिर्फ पराजय ही नहीं होती।
पूरी दृष्टि खोलकर निहारा तुम्हें।
मेरे मन में
आशा का अव्यक्त हर्ष था।
मारे हुए जी उठाते है
कथाओं में था।
हमारे एक दूसरे को
संशय और संभावना पूर्वक देखने से
कुछ हुआ नहीं।
तुम्हारा दोस्त हारा नहीं।
मेरा दोस्त जिया नहीं।
सिर्फ
हमारे अंतर्बोध में गहरा संबंध निकला।
तुम्हारा हार का और मेरा जीवन का बोध।
मैं और तुम मिले
दुकान पर
फूलों की दुकान पर।
——–2/11/21———————————