अंतर्द्वन्द
रचनाकार:- रेखा कापसे
दिन:- शुक्रवार
दिनाँक:- 30/10/2020
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एक कशमकश सी सदा बनी रहती हैं मेरे मन में!
इतने उतार- चढ़ाव क्यों लिखे हैं रब ने जीवन में!!
मूरत गढ़ी नारी की मेरी, संयम सहनशीलता भर!
कोमल हिय दे मुझे, बांधा रिश्तों के चित्तवन में!!
घर कौन सा मेरा हैं, ननिहाल या ससुराल डेरा है!
कहते मैं धन पराया, लक्ष्मी कह करते बखेड़ा हैं!!
एक अंतर्द्वन्द चलता रहता हैं उर के एक हिस्से में!
क्या सच क्या झूठ यहाँ,समझ ना आए किस्से में!!
क्या सच में मैं अर्द्धांगिनी हूँ, फिर हक क्यों न बोलने का!
भावनाओं की कद्र नहीं, जिम्मेदारी से बस तोलने का!!
मन कहता है मेरी सुनो, दिमाग कहीं और रहता है!
रिश्तें सुलझाऊँ तो, स्वप्न मेरा दरिया सा बहता है!!
उड़ना तो चाहती हूँ गगन में, पर साथ नहीं देते हैं!
डगमगा जाऊँ गर मैं , मेरे अपने हाथ नहीं देते हैं!!
स्वाभिमान की रक्षा करूँ, तो मुझमें अहंकार दिखता है!
मेरे खिलाफ तब मुझकों ये, सकल संसार दिखता है!!
अंतर्द्वन्द के बीच सदैव , मन अकेला जुझता रहता है!
सही गलत क्या है , इसी के बीच द्वंद्व झुलता रहता हैं!!
रेखा कापसे
होशंगाबाद मप्र
रचना स्वरचित मौलिक, सर्वाधिकार सुरक्षित