अंतः पीड़ा
तिल तिल करके ढले रात भर, वो जंगल से जले रात भर । जिनके घर कंगाली पसरी उन्हें दीवाली कैसी होली छीन ले गया क्रूर काल भी जिनके आनंदों की झोली जीवन की टेढ़ी राहों पर लिए व्यथित पाँवों में छाले लक्ष्यहीन हो करके भी जो , उन राहों पर चले रात भर , वो जंगल से जले रात भर । फ़टे चीथड़ों से झांकी जो भूख पेट की जग ने मानी होकर द्रवित किसी ने थोड़ी भी उनकी न पीड़ा जानी रोटी ले तस्वीर खिंचाते कथित दानवीरों के संग में बेनर पर चित्रों में दिखते रहे बेचारे छले रात भर , वो जंगल से जले रात भर । गर्मी में सोते फुटपाथों पर जिनके तन कुचले जाते बरसाती बाढ़ों में जिनके कुनबे डूब – डूब उतराते आँधी तूफानो में भीषण बे मौसम की मार झेलते हाड़ कँपाती सर्दी में भी ठिठुर ठिठुर कर गले रात भर ,वो जंगल से जले रात भर । ✍️सतीश शर्मा ।