अंकुश
भावों का अंकुश लगा
दिल तुम्हारा बाँध लेता
दुर्गम राहों पर चल कर
कटघरे में कैसे रखता
बाँध कर पिजड़े रखा
पर स्वच्छन्द सा घूमता
जैसे केसरी हो उन्मुक्त
निर्जन से मन वन का
कितने साँचों में ढाला
अनुकूल न बन पाया
तपाया है संलाकों सा
कुंदन सा न बन पाया
मार चौगे और छक्के
रन बनाता रहा है ऐसे
जैसे देह मेरी बन गई
क्रिकेट पिच सी कोई