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23 Sep 2016 · 1 min read

ग़ज़ल

इतनी कोशिशों के बाद भी तुम्हें कहाँ भूल पाते है
दीवारों से बचते है तो दरवाजे टकराते है।

कौन रुलाए कौन हँसाए मुझको इस तन्हाई में
ख़ुद के आंसू हाथों में ले ख़ुद को रोज हंसाते है।

जाने क्या लिख डाला है हाथों की तहरीरों में
अपनी किस्मत की रेखाएं उलझाते है, सुलझाते है।

तुझको किन ख़्वाबों में खोजूँ जागी जागी रातों में
ख़ुद से इतनी दूरी है कि ख़ुद को ढूंढ़ न पाते है।

तेरी यादें दिल में इस हद तक गहरी बैठ गई है
तेरी यादों के दलदल में ख़ुद को भूल जाते है।

तुमने सोचा होगा बिन तेरे हम खुश कैसे है
दिल में अश्कों का दरिया है,बाहर हम मुस्काते है।

1 Comment · 558 Views

Books from विनोद कुमार दवे

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