हिकायत से लिखी अब तख्तियां अच्छी नहीं लगती
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हिकायत से लिखी अब तख्तियां अच्छी नहीं लगती।
उजड़ जाए अगर तो बस्तियां अच्छी नहीं लगती।
हमारा अज्म है हम लौट कर वापस न जाएंगे।
मुझे साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती।
मोहब्बत से हमेशा फूल बांटा है वफाओं का।
तेरे लहजे की मुझको तल्ख़ियां अच्छी नहीं लगती।
मुसीबत सर पे आती है खुदा तब याद आता है।
जमाने की यही खुद गर्जियां अच्छी नहीं लगती।
बहु कैसे मिलेगी जिनको नफरत बेटियों से है।
घरों में जिनको अपने बच्चियां अच्छी नहीं लगती।
“सगीर”लिखना मुहब्बत से मुहब्बत की गजल हर दिन।
शिकायत से लिखी अब पंक्तियां अच्छी नहीं लगती।
डॉक्टर सगीर अहमद सिद्दीकी खैरा बाजार बहराइच