*संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक रिपोर्ट*
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संपूर्ण रामचरितमानस का पाठ/ दैनिक समीक्षा
15 अप्रैल 2023 शनिवार प्रातः 10:00 से 11:00 तक
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आज बालकांड दोहा संख्या 270 से दोहा संख्या 308 तक का पाठ हुआ। रवि प्रकाश के साथ पाठ में श्रीमती पारुल अग्रवाल की विशेष सहभागिता रही।
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राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद, विवाह कार्यक्रम का व्यापक आयोजन
रामचरितमानस की आज की कथा में सीता-स्वयंवर के मध्य भगवान परशुराम अत्यंत क्रोध की मुद्रा में हैं। सब डर रहे हैं। लेकिन ऐसे में भी भगवान राम ने अपने हृदय को सदैव की भॉंति हर्ष और विषाद से परे ही रखा है। तुलसी लिखते हैं :-
हृदय न हरषु विषादु कछु, बोले श्री रघुवीर (दोहा संख्या 270)
अर्थात भगवान परशुराम से भगवान राम ने हृदय को हर्ष और विषाद से परे रखते हुए अपनी बात कही। भगवान राम के स्वभाव में स्वाभाविक विनय मिलता है । इसका परिचय पग-पग पर उनके आचरण से चलता है। जैसे ही भगवान परशुराम क्रुद्ध हुए, रामचंद्र जी ने उनसे यह कहकर अपनी बात शुरू की कि जिस ने धनुष तोड़ा है, वह आपका दास ही तो है। तुलसी लिखते हैं:-
नाथ शंभु धनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा (दोहा वर्ग संख्या 270)
दूसरी ओर लक्ष्मण का स्वभाव थोड़ा टेढ़ा है। वह भगवान परशुराम के क्रोध को हॅंसी में उड़ा देते हैं। तुलसी के शब्दों में, साथ ही यह भी कहते हैं :-
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई
अर्थात देवता, ब्राह्मण, हरि के प्रेमी और गाय पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती (दोहा वर्ग संख्या 273)
जब भगवान परशुराम विश्वामित्र जी से यह कहते हैं कि लक्ष्मण को हमारी वीरता के बारे में बता दो, तो लक्ष्मण पलट कर चुभने वाली बातें कहना आरंभ कर देते हैं। लक्ष्मण कहते हैं :-
सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आप। विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप (दोहा संख्या 274)
अर्थात शूरवीर तो युद्ध में भी जो करना होता है, वह करते हैं । कहने का कार्य नहीं करते। कहने की बातें तो केवल कायर ही किया करते हैं। यहां पर तुलसी स्पष्ट रूप से लक्ष्मण के माध्यम से नीति की बातों को पाठकों तक पहुंचा रहे हैं । सचमुच वीरों का लक्षण युद्ध में वीरता दिखाना होता है। वीरता की बातें कहना-मात्र वीरों का लक्षण नहीं होता। दूसरी ओर रामचंद्र जी समय-समय पर लक्ष्मण को अनुचित बात कहने से रोकते हैं। वह परशुराम जी से निवेदन करते हैं कि वह कृपया शांत हो जाऍं। तुलसी के शब्दों में :-
जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुरु पितु मातु मोद मन भरहीं।। करिअ कृपा शिशु सेवक जानी। तुम्ह सम शील धीर मुनि ज्ञानी (दोहा वर्ग संख्या 276)
अर्थात लड़का अगर कुछ गलत भी करता है तो माता-पिता अप्रसन्न नहीं होते हैं। अतः आप भी मुझ पर कृपा कीजिए। यह नीति के सुंदर वचन हैं जो तुलसीदास जी रामचंद्र जी के मुख से कहलवा रहे हैं। परशुराम तथा राम लक्ष्मण-संवाद में तुलसी की कार्यकुशलता लक्ष्मण और राम के मुख से नीति के वचनों को कहलवाने में अधिक प्रयुक्त हुई है। भगवान परशुराम का तो केवल क्रोध ही उजागर होता जा रहा है।
इसी संवाद के मध्य लक्ष्मण एक और नीति का वचन परशुराम से कहते हैं। बात तो समझने और समझाने के लिए उचित है लेकिन यह सब आग में घी का काम ही कर रही थी। लक्ष्मण ने परशुराम को समझा कर कहा। तुलसी लिखते हैं:-
लखन कहेउ हॅंसि सुनहु मुनि, क्रोध पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं, चरहिं विश्व प्रतिकूल।। (दोहा संख्या 277)
अर्थात क्रोध तो पाप की जड़ है, जिसके वशीभूत होकर मनुष्य तमाम अनुचित कार्य करते रहते हैं।
कहीं-कहीं भगवान परशुराम भी तुलसीदास जी की लेखनी से नीति के सुंदर वचन क्रोध के मध्य कहने लगते हैं। इन सब से संवाद का मूल्य बढ़ जाता है। यह लेखक की कुशलता होती है कि वह विचारों से अपने कथाक्रम को कितना समृद्ध कर पाता है । इस दृष्टि से तुलसी पूरी तरह सफल जान पड़ते हैं। भगवान परशुराम रामचंद्र जी से लक्ष्मण के बारे में कहते हैं :-
मनु मलीन तनु सुंदर कैसे। विष रस भरा कनक घट जैसे (दोहा वर्ग संख्या 277)
अर्थात लक्ष्मण को देखो तो, इसका शरीर जितना सुंदर है मन उतना ही मैला है । समझ लो जैसे सोने के बर्तन में विष का रस भरा हुआ है।
राम के विचारों और व्यवहार में अत्याधिक विनम्रता मिलती है। वह बार-बार भगवान परशुराम जी के सम्मुख नतमस्तक हो रहे हैं और भगवान परशुराम जी की महानता को स्वीकार करते हुए उनको बड़ा और खुद को छोटा स्वीकार करने में बिल्कुल भी नहीं सकुचा रहे । राम की यह स्वाभाविक विनम्रता उनको वास्तव में एक अवतारी भगवान की कोटि में ले आती है। रामचंद्र जी भगवान परशुराम से कहते हैं:-
हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहां चरण कहॅं माथा।। राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बढ़ नाम तोहारा(दोहा वर्ग संख्या 281)
अर्थात हम चरण और आप मस्तक हैं। हमारा तो केवल दो अक्षरों का छोटा-सा नाम राम है ;लेकिन आपका नाम तो राम के साथ परसु शब्द मिलकर बहुत बड़ा है अर्थात आप हमसे सब प्रकार से बड़े हैं। केवल इतना ही नहीं राम पुन: भगवान परशुराम को अनेकानेक गुणों का भंडार मानते हुए उनकी वंदना करते हैं । तुलसी लिखते हैं कि राम का कथन इस प्रकार है :-
देव एक गुण धनुष हमारे, नव गुण परम पुनीत तुम्हारे। सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। क्षमहु विप्र अपराध हमारे (दोहा वर्ग संख्या 281)
अर्थात हे ब्राह्मण देवता! हमारे अपराधों को क्षमा करो। हमारे अंदर तो केवल धनुष चलाने का ही गुण है लेकिन आपके भीतर तो नौ प्रकार के गुण विराजमान हैं। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने अपनी टीका में इन नौ गुणों को इस प्रकार से बताया है :-
शम दम तप शौच क्षमा सरलता ज्ञान विज्ञान और आस्तिकता। भगवान परशुराम को रामचंद्र जी इन 9 गुणों का भंडार मानते हैं। अतः सब प्रकार से उनकी वंदना करते हैं।
भगवान परशुराम ब्राह्मण-देवता तो हैं, लेकिन वह वास्तव में वीर-रस के अवतार हैं। उन्होंने राम से कहा :-
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू।। समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।। मैं एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर यज्ञ जप कोटिन्ह कीन्हे।। (दोहा वर्ग संख्या 282)
अर्थात परशुराम वह ब्राह्मण हैं जो धनुष को स्त्रुवा अर्थात यज्ञ में आहुति देने के लिए प्रयोग की जाने वाली लकड़ी की एक लंबी-सी करछली अथवा करछी मानते हैं। बाण को आहुति मानते हैं और क्रोध को यज्ञ की भयंकर अग्नि मानते हैं। यज्ञ की समिधा अर्थात लकड़ियॉं सेनाऍं हैं। बड़े-बड़े राजा बलि के पशु के समान होते हैं, जिनको अपने फरसे से काटकर भगवान परशुराम बलि देते हैं। परशुराम कहते हैं कि युद्ध रूपी यज्ञ इस प्रकार से मैंने करोड़ों किए हैं।
इसमें संदेह नहीं है कि भगवान परशुराम के ज्ञान, विज्ञान तप आदि महान गुणों का परिचय देते हुए उनके वीर रस अवतार स्वरूप को दर्शाने में तुलसीदास जी ने अपनी लेखनी के चमत्कार से कोई कमी नहीं रखी। अंत में परशुराम-संवाद का सुखद उपसंहार होता है; जिसमें परशुराम जी अपने धनुष को भगवान राम को यह कहकर देने लगते हैं कि आप इस धनुष को अगर खींच लेते हैं तो मेरा संदेश मिट जाएगा और सचमुच परशुराम जी के धनुष देते-देते ही वह खिंच गया। तदुपरांत परशुराम जी के मन का संदेह भी समाप्त हो गया और उन्होंने राम के अवतार स्वरूप को स्वीकार करते हुए निम्नलिखित शब्दों में भगवान राम की जय-जयकार की :-
जय सुर विप्र धेनु हितकारी, जय मद मोह कोह भ्रम हारी (दोहा संख्या 284)
अर्थात देवताओं, ब्राह्मणों और गाय के हितकारी हे भगवान राम ! आप जगत के मद,मोह और भ्रम को हरने वाले हैं । आपकी जय हो । इस तरह परशुराम के राम-लक्ष्मण से संवाद की उपयोगिता सुखपूर्वक संपन्न हुई। जहां एक ओर परशुराम के गुणों का वंदन इस संवाद के माध्यम से भरपूर रीति से हुआ तथा राम ने भगवान परशुराम की महिमा का गान किया, वहीं दूसरी ओर बिना एक भी बाण चढ़ाए अथवा फरसे का प्रयोग किए ही परशुराम शांत हो गए और उन्होंने राम की महिमा को स्वीकार भी किया।
यूं तो राम और सीता का विवाह धनुष टूटने के बाद सीता द्वारा राम के गले में जयमाल डालते ही एक प्रकार से संपूर्ण हो गया था, लेकिन विश्वामित्र ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने महाराज दशरथ को बुलाने के लिए महाराज जनक से आग्रह किया ताकि दशरथ जी बारात लेकर आऍं और सब प्रकार से धूमधाम से विवाह संपन्न हो। विश्वामित्र जनक से कहते हैं:-
दूत अवधपुर पठवहि जाई। आनहि नृप दशरथहि बोलाई।। (दोहा वर्ग संख्या 286)
अर्थात अपने दूतों को अयोध्या भेजो, जो महाराज दशरथ को बुला कर लाऍं।
विश्वामित्र का यह कथन एक प्रकार से स्वयंवर-विवाह पर परिवार की स्वीकृति की मोहर लगवाना भी था। साथ ही साथ यह परिवार को समुचित आदर और सम्मान देना भी था कि जब बारात आएगी और विवाह संपन्न होगा, तभी तो परिवार-जनों को यह महसूस होगा कि हम विवाह के साक्षी हैं और उसके अभिन्न अंग हैं।
अब एक तरफ दूत अयोध्या चले गए तथा दूसरी तरफ जनकपुरी में विधिवत विवाह की तैयारियां होने लगीं। जनकपुरी वैभव का भंडार थी। तुलसी ने जनकपुरी के वैभव को अपने काव्य में मानों जीवंत कर दिया। जो मंडप बनाए जा रहे थे, उनके बारे में तुलसी लिखते हैं :-
बिरचे कनक कदलि के खंभा (दोहा वर्ग संख्या 286)
अर्थात कनक कदली अर्थात सोने के केले के खंभे बनाए गए। और आगे लिखते हैं :-
हरित मनिन्ह के पत्र फल, पदुम राग के फूल (दोहा संख्या 287)
अर्थात हनुमान प्रसाद पोद्दार जी की टीका के अनुसार हरे पन्ने के पत्ते थे और माणिक के फूल थे। आगे लिखते हैं:-
बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। कनक कलित अहबेलि बनाई। मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा (दोहा संख्या 287)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इसकी टीका में लिखते हैं कि बांस हरे पन्नों के थे, नागबेल अर्थात पान की लता के पत्ते सोने के थे, माणिक पन्ने हीरे और फिरोजा नामक रत्नों से लाल हरे सफेद और फिरोजी रंग के कमल के फूल बनाकर सौंदर्र्यीकरण हुआ था । इन सब वर्णनों से यह पता चलता है कि सोना और रत्नों का भंडार महाराज जनक की नगरी हुआ करती थी। इसी वैभव का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी ने एक दोहा पुनः प्रस्तुत किया है। कवि का कौशल इस बात में निहित होता है कि वह चीजों को पाठकों तक पहुंचाने के लिए किस कुशलता से चित्रित करते हुए तथ्यों को अपने काव्य में डाल पाता है। कविताओं के माध्यम से यह कार्य और भी कठिन हो जाता है ,लेकिन तुलसीदास जी ने लयबद्धता के साथ जनकपुरी के ऐश्वर्य और वैभव को दर्शाने में पूरी तरह सफलता प्राप्त की है। दोहा देखिए :-
सौरभ पल्लव सुभग सुठि, किए नीलमणि कोरि। हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि (दोहा संख्या 288)
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने दोहे का अर्थ अत्यंत सरलता से उपलब्ध करा दिया है। उनके अनुसार नीले रंग की मणि से आम के पत्ते बने हैं । हेम अर्थात सोने के तथा मरकत अर्थात पन्ने के बने हुए आम के फूलों के गुच्छे इस सौंदर्यीकरण में काम में लगाए गए हैं । इस तरह जनकपुरी का वैभव रामचरितमानस में चित्रित हो रहा है।
उधर राजा जनक के दूतों ने चिठ्ठी अर्थात पत्रिका महाराज दशरथ को देकर राम-सीता के स्वयंवर-विवाह का वृत्तांत बताया। जिस पर गुरुदेव वशिष्ठ ने राजा दशरथ से कहा :-
सजहु बरात बजाइ निसाना (दोहा वर्ग संख्या 293)
अर्थात निसाना अर्थात डंका बजाकर बरात को सजाओ।
रामचंद्र जी की बारात का विस्तृत वर्णन तुलसीदास जी ने किया है । एक स्थान पर उन्होंने सावॅंकरण अर्थात श्यामकर्ण वाले घोड़ों के बारे में उल्लेख किया है :-
सावॅंकरन अनगित हय होते (दोहा वर्ग संख्या 298)
घोड़ों की विशेषता भी तुलसीदास बताते हैं जो इस प्रकार है:-
जे जल चलाहिं थलहि कि नाईं। टाप न बूड़ वेग अधिकाईं (दोहा वर्ग संख्या 298)
अर्थात ऐसे घोड़ों के कान श्याम वर्ण के होते थे तथा इस प्रकार के अगणित घोड़े दशरथ जी की के पास थे । यह घोड़े इतनी तेजी से चलते थे कि पानी में भी उन घोड़ों की टापें नहीं डूबती थीं और वह जमीन पर चलने के समान ही दौड़ते रहते थे।
एक विशेष बात तुलसीदास जी ने इस बारात में गुरुदेव वशिष्ठ को अति विशिष्ट आदर प्रदान करने की लिखी है। बरात की तैयारियों में तुलसीदास जी ने दो रथों को सजा कर तैयार करने की बात लिखी है अर्थात दोनों एक जैसे ही रहे होंगे। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक रथ में शाही सामान रख दिया जाता है तथा दूसरे रथ में महाराज दशरथ द्वारा सर्वप्रथम गुरुदेव वशिष्ठ को बिठाया जाता है । तदुपरांत महाराज दशरथ भी रथ पर चढ़ जाते हैं। यहां टीका में हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने राजा दशरथ द्वारा ‘दूसरे रथ पर’ चढ़ने की बात इन शब्दों में लिखी है:-
उस सुंदर रथ पर राजा वशिष्ठ जी को हर्ष पूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं… दूसरे रथ पर चढ़े। (दोहा संख्या 301 की टीका)
स्पष्ट है कि यह दूसरा रथ कोई तीसरा रथ नहीं है, अपितु वही दूसरा रथ है जिस पर दशरथ ने वशिष्ठ को बिठाया था। राजा दशरथ और वशिष्ठ दोनों एक ही रथ पर बैठकर बरात में चल रहे हैं, यह इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि अगली चौपाई में तुलसीदास जी ने राजा दशरथ और वशिष्ठ को एक साथ विराजमान देखकर इस दृश्य की तुलना आचार्य बृहस्पति और देवराज इंद्र के एक साथ उपस्थित होने से की है। इस तरह यह सिद्ध होता है कि प्राचीन समय में राजाओं द्वारा राज गुरुओं को किसी प्रकार भी राजा की तुलना में कम सम्मान नहीं दिया जाता था । वास्तव में जिस देश में गुरु, विद्वान, पुरोहित और सलाहकार पूजे जाते हैं; उस देश में कोई विघ्न-बाधा नहीं आ पाती है।
रामचरितमानस में शगुन-अपशकुन के विचार को भी बड़ा महत्व दिया गया है। कुछ बातों का शगुन अच्छा माना जाता है। इसके लिए तुलसीदास लिखते हैं :-
होहिं शगुन सुंदर शुभदाता (दोहा वर्ग संख्या 302)
अर्थात सुंदर शगुन होना सौभाग्य का सूचक माना जाता है । यह सुंदर शगुन कौन से माने जाते हैं? इसको तुलसीदास जी ने कई प्रकार से दर्शाया है । एक स्थान पर लिखा है:-
चारा चाषु बाम दिसि लेई।
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने इसका अर्थ यह बताया है कि नीलकंठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है।
एक स्थान पर तुलसीदास जी लिखते हैं :-
दाहिन काग सुखेत सुहावा
अर्थात कौवा दाहिनी ओर खेत में शोभा पा रहा है।
नेवले का दर्शन भी शुभ माना गया है।
नकुल दरसु सब काहूं पावा।
लोमड़ी का देखना भी अच्छा माना गया है। तुलसीदास जी लिखते हैं :-
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा
लोवा अर्थात लोमड़ी ।
एक स्थान पर लिखा है मृगमाला फिरि दाहिनि आई।
अर्थात हिरणों की टोली दाहिनी तरफ आ गई।
एक स्थान पर लिखते हैं:-
छेमकरी कह छेम विशेषी
हनुमान प्रसाद पोद्दार जी इसकी टीका लिखते हुए कहते हैं:-
“क्षेमकारी अर्थात सफेद सिर वाली चील विशेष रुप से क्षेम कल्याण कह रही है।”
तुलसीदास जी शगुन का एक और लक्षण बताते हैं लिखते हैं:-
सन्मुख आयउ दधि अरु मीना
अर्थात दधि अर्थात दही और मीना अर्थात मछली -इनका दिखना भी शगुन का द्योतक है। शगुन और अपशकुन का अर्थ भले ही कुछ भी हो, लेकिन रामचरितमानस से यह तो पता चल ही रहा है कि लोक जीवन में शगुन की एक विशेष मान्यता होती है तथा उसके आधार पर व्यक्ति भविष्य के मंगल और अमंगल के बारे में विचार करने लगता है। राम जी की बारात सब प्रकार से मंगलमय थी तथा शगुन की सुंदरता से भरी हुई थी।
राम जी की बारात की एक विशेषता यह भी थी कि वह लग्न से एक दिन पहले आई। तुलसी लिखते हैं :-
प्रथम बारात लगन तें आई (दोहा वर्ग संख्या 308)
लग्न का अर्थ संभवतः विवाह के दिन से है। ऐसे में बरात कम से कम तीन दिन अवश्य ही रही होगी। यह प्रथा राम जी के विवाह से लेकर हजारों वर्षों तक चलती रही। भारतीय लोक जीवन की यही विशेषता है कि प्राचीन परंपराएं और संस्कृति केवल पुस्तकों में लिखित नहीं है, वह किसी न किसी रूप में वास्तविकता के साथ लोक जीवन में उतरती हुआ हमें दिखाई देती है।
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लेखक : रवि प्रकाश (प्रबंधक)
राजकली देवी शैक्षिक पुस्तकालय (टैगोर स्कूल), पीपल टोला, निकट मिस्टन गंज, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451